सत्य की जीत, बेदाग सिद्ध हुए प्रो. पाठक

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सत्य की जीत, बेदाग सिद्ध हुए प्रो. पाठक

 



डॉ. अनिल दीक्षित
(लेखक दैनिक जागरण आईनेक्स्ट, कानपुर के पूर्व संपादकीय प्रभारी और शिक्षाविद हैं।)

आखिरकार साजिश हार गई, और सत्य की जीत हुई। प्रवर्तन निदेशालय की माफिया की कलई खोलने वाली जांच का असर हुआ, प्रोफेसर विनय कुमार पाठक निर्दोष साबित हुए। प्रवर्तन निदेशालय के जांच निष्कर्ष पर केंद्रीय जांच ब्यूरो ने प्रो. पाठक के खिलाफ जांच बंद कर दी है।

कई बार लगा सच की राह मुश्किल है। सत्य अकेला था, साजिशें तमाम थीं, बरसों से जो अपने थे, वह पलट चुके थे, राही अकेला सा लगता था। कलयुग है ना! लेकिन यह बात फिर भी साबित हुई कि सत्य अकेला हो सकता है लेकिन पराजित नहीं हो सकता। डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के तत्कालीन और कानपुर विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति प्रो. पाठक ने पिछले कुछ महीनों में क्या क्या नहीं देखा। अभिमन्यु की तरह उन्हें घेर लिया गया, अपने भी पैसों के दम पर खरीद लिये गए, और शुतुरमुर्गी मीडिया चंद सिक्कों की खनक पर खूब नाचा। शराब की बोतलों में लेखनी डुबोने का पाप कर बैठा। फर्जी कहानियां लिखी गईं।

कई विश्वविद्यालय में सक्रिय माफिया डेविड मारियो डेनिस ने मेडिकल छात्रों की कॉपी में हेरफेर का भयानक अपराध छुपाने के लिए प्रो. पाठक को फंसा दिया। रैकेट में कुछ प्रोफेसर भी थे जो माफिया के लिए खुलकर गवाही देने आ गए। मीडिया ने भी यह नहीं देखा कि माफिया तमाम फ्रॉड के साथ फर्जी डॉक्टर बनाने जैसा जघन्य अपराध भी कर रहा है। उसे भी कुछ सिक्कों से लाख तक खरीद लिया गया। पूरे राज्य में ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की गई, जैसे माफिया तो हीरो है और उसे बेनकाब करने वाले ईमानदार कुलपति विलेन। यह दुर्भाग्य है कि सभी मिलकर उस शख्सियत को फंसा रहे थे जिन्हें उत्तर प्रदेश के साथ-साथ उत्तराखंड और राजस्थान में भी कई विश्वविद्यालय की सूरत सुधारने का श्रेय था।

माफिया के खातों से यदि विदेशी लेनदेन के मामले उजागर नहीं होते तो शायद प्रवर्तन निदेशालय की जांच नहीं होती, लेकिन ईश्वर तो भी सत्य के साथ होता है। निदेशालय की जांच में परत दर परत खुलती गई, और माफिया अपनी करतूतों की वजह से सरेआम नंगा हो गया। मैंने इस प्रतिष्ठित न्यूज वेबसाइट ताज न्यूज पर एक्सक्लूसिवली लिखीं पिछली कड़ियों में यह उजागर किया है कि कैसे माफिया ने शिक्षा तंत्र का मजाक बना डाला और अरबों की कमाई लूटी। लाखों रुपए प्रति माह कमाने वाले प्रोफेसरों का ईमान भी खरीद लिया। माफिया ने जो चाहा वो किया। समाज में दर्जनों असली डिग्री वाले अज्ञानी यानी फर्जी डॉक्टर झोंक दिए, जो न जाने कहां-कहां मरीजों की जान ले रहे होंगे, जान से खेल रहे होंगे। अदालत में प्रस्तुत निदेशालय का आरोपपत्र इस नंग नाच की कलई खोलने वाला दस्तावेज है।

बहरहाल, निदेशालय यानी एक अन्य केंद्रीय एजेंसी जांच के निष्कर्ष सीबीआई ने स्वीकार कर लिये हैं। प्रो. पाठक बेदाग हैं। संतुष्टि है कि मैं सत्य के साथ था। जिस तरह से मेरी पोस्ट सैकड़ों लोगों ने शेयर की है, उससे यह स्पष्ट है कि इस दुनिया में बहुत लोग सच के सारथी प्रो. पाठक के साथ हैं। अब समय की मांग है, फर्ज का तकाज़ा है कि शिक्षा तंत्र के साथ ही मां सरस्वती के कलमवीर पुत्रों को भी प्रो. पाठक के साथ आना चाहिए। मीडिया आज भी ईमानदारी के साथियों से भरा हुआ है। निश्चित रूप से अन्याय की कोशिश के लिए यह क्षमा मांगने का भी वक्त है, साजिश में जाने-अनजाने या स्वार्थवश शामिल हो गए लोगों को भी माफी मांग लेनी चाहिए।

…क्योंकि आज असत्य कितना भी हावी नज़र आए, लेकिन सत्य हमारे हृदय में आज भी दीपक की टिमटिमाती लौ की तरह उम्मीद पैदा करता है।

 

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