…और यूं बिक गई कलम !

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...और यूं बिक गई कलम !

 

   अनिल दीक्षित

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है व दैनिक जागरण से जुड़े रहे है )

 

चांद पर थूकने का हश्र देखना हो तो उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों के मीडिया की हरकतों को देखिए। ब्लैकमेलिंग, बिना पुष्टि खबरों का प्रकाशन और प्रसारण।निजी कार्य न करने पर मानहानि तो आम है, यहां फर्जी प्रकरण पैदा करने के भी कारनामे रचे गए हैं। औंधे मुंह गिरे भी हैं मीडिया संस्थान। किंतु बिना दांत की प्रेस काउंसिल बस निंदा करने तक ही सीमित रह जाती है, आम आदमी कोर्ट तक जाता नहीं। नतीजा ये, कि हौसले बुलंद होते जाते हैं।

आगरा में सरकारी डॉ. भीमराव आंबेडकर यूनिवर्सिटी में मेडिकल परीक्षाओं में बड़े घोटाले के राजफाश में भी मीडिया ने यही-सब किया। खबरों के ठेके चंद टुकड़ों से लेकर लाखों में उठे। माफिया के गुर्गों ने पत्रकारों के घरों की साजसज्जा कराई, निजी यात्राओं के बोझ उठाए। कानपुर के कुलपति प्रो. विनय कुमार पाठक ने चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया की करतूतों का दुर्भाग्य झेला है। प्रो. पाठक तब आंबेडकर यूनिवर्सिटी के भी कुलपति थे। एक दिन एक सूत्र से खबर मिली कि मेडिकल सहित तमाम परीक्षाओं में धांधलियों के करोड़ों के कारनामे रचे गए गए हैं। खबर की पिछले कुलपतियों ने अनदेखी की थी, क्यों, पता नहीं।

लेकिन प्रो. पाठक तो जैसे जुनून में थे, उत्तराखंड, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों में सिस्टम सुधारने के बाद उन्होंने प्रदेश के इस सबसे बदतर हालात के विश्वविद्यालय को भी पटरी पर लाने की ठान रखी थी। खबर पर कार्रवाई हुई। बदलने के लिए ले जाई जा रहीं मेटाडोर में लदीं कॉपियां पकड़े जाने पर एफआईआर दर्ज करा दी गई। आपराधिक घोटाले में माफिया डेविड मारियो डेनिस का हाथ था और वो आजकल जेल में है। प्रवर्तन निदेशालय की जांच में साबित हुआ है कि वह दोषी है। अदालत में आरोपपत्र दाखिल कर दिया गया है। माफिया ने प्रो. पाठक के खिलाफ अभियोग दर्ज करा दिया। झूठी गवाहियों के दौर चले।

बहरहाल, माफिया का गंदा रोल यहां से शुरू हुआ। गुर्गों ने कुछ पत्रकार सेट किए, नोटों से उनका पेट भरा गया और ईमान खरीद लिया गया। एक पत्रकार के घर में महंगा फर्नीचर दिया गया, दूसरे का लाखों खर्च कर व्यक्तिगत टूर स्पांसर किया गया। एक पत्रकार को आभूषण गिफ्ट हुए। पत्रकारों की सेवा में शराब की बोतलें की पेटियां तक भेजी गईं। और, न्यू आगरा क्षेत्र के एक होटल में खूब पार्टियां हुईं। और असर, मीडिया की खबरों में दिखा। झूठी खबरों को एसटीएफ सूत्रों के हवाले से बताकर बार-बार अलग हेडिंग से छापा और दिखाया गया। पैसे की खनक थी, इसलिये एसटीएफ या किसी पत्रकार ने यह जानने की कोशिश नहीं कि माफिया प्रो. पाठक को राशि देने की बात का आधार क्या है। और यह राशि वो लाया कहां से। एसटीएफ ने उसके खाते तक नहीं जांचे। बस, बिना आग के धुआं फैलाने का उपक्रम किया जाता रहा।

और जब सच सामने आया और माफिया खुद फंस गया तो भी आब्लीगेशन में खबरें अंडरप्ले की गईं। राजधानी के कार्यालयों और सूत्रों से आई खबरों में भी प्रो. पाठक के खिलाफ झूठे प्रकरण के अंश की मिलावट की गई। कई दिन तक कुलपति की फोटो छापने वाले मीडिया ने माफिया की फोटो आज तक ना छापी, न दिखाई। हालांकि हालात के पलटा मारते ही कलम के यह दलालवीर भी पलट गए हैं। प्रबंधन भी सख्त हुआ है और दलाली से बैनर पर कीचड़ उछालने वाले दंडित हुए हैं। किंतु… एक शिक्षाविद की मानहानि की क्षतिपूर्ति तो नहीं हो सकती। पत्रकारिता के स्थापित सिद्धांत के विपरीत दूसरे पक्ष यानि कुलपति का पक्ष जानने की कोशिश तक नहीं की गई।

पूरा प्रकरण सबक है कि मीडिया की खबरों पर आंख बंदकर भरोसा करने के दिन गए। कलम के प्रति ईमानदारी भुला दी गई है। सबकुछ बिकाऊ है, मीडिया भी

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