‘ज़हरीली सांसों का समाजवाद’: अमीर-गरीब में फर्क कर रही हवा; 85% शहर प्रदूषण घटाने में फेल, अब सांस लेना ‘मौलिक अधिकार’ नहीं, जोखिम बन गया

Wednesday, 17 December 2025, 11:45:00 PM. Agra/New Delhi

आगरा/नई दिल्ली। उत्तर भारत में सर्दियां अब गुलाबी नहीं, बल्कि ‘काली’ और ‘दमघोंटू’ हो चुकी हैं। सुबह की धुंध कोहरा नहीं, बल्कि वो ज़हर है जो आपके फेफड़ों को छलनी कर रहा है। वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरणविद बृज खंडेलवाल ने अपने आलेख “ज़हरीली सांसों का समाजवाद” में एक कड़वी सच्चाई उजागर की है।

हवा अमीर और गरीब में फर्क करने लगी है। एसी कमरों और एयर प्यूरीफायर में बैठे अमीर शायद कुछ हद तक सुरक्षित हैं, लेकिन सड़क पर मेहनत करने वाला मजदूर, रिक्शा चालक और रेहड़ी-पटरी वाला अपनी हर सांस के साथ मौत को गले लगा रहा है।

ज़हरीली सांसों का समाजवाद
जब हवा अमीर–ग़रीब में फर्क करने लगे
सरकार को सुरक्षित करना होगा हर नागरिक का स्वच्छ हवा का मूल अधिकार


बृज खंडेलवाल


सुबह सवेरे, वह मज़दूर कुछ देर ज़्यादा खाँसता रहा। ठंड थी, धुंध थी, और फेफड़ों में चुभती जलन थी। उसे नहीं पता था कि यह सर्दी की एलर्जी है या ज़हरीली हवा का असर। पता बस इतना था कि काम पर जाना ज़रूरी है, क्योंकि सांस भले ही दूषित हो, रोज़ी-रोटी नहीं रुक सकती।

Brij Khandelwal
बृज खंडेलवाल


उत्तर भारत की सर्दियों में यह दृश्य अब अपवाद नहीं, सामान्य सच बन चुका है। हवा इतनी जहरीली हो गई है कि सांस लेना अपने आप में एक जोखिम बन गया है। यह अब मौसम की मार नहीं, एक गहरी और स्थायी पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी है।
जैसे-जैसे सर्दी उत्तरी भारत पर अपनी पकड़ मज़बूत कर रही है, ज़हरीला स्मॉग एक बार फिर शहरों को निगल रहा है। दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) अक्सर 400 के आसपास दर्ज हो रहा है। “बहुत ख़राब” से “गंभीर” श्रेणी में। PM2.5 सुरक्षित सीमा से कई गुना ऊपर है। ताजमहल के शहर आगरा में भी हाल बेहतर नहीं; यहाँ AQI 300 तक पहुँच जाता है, और PM10 व PM2.5 दोनों ही सेहत पर सीधा वार कर रहे हैं। गोरखपुर, लखनऊ जैसे शहर भी इसी दमघोंटू घेरे में हैं।
यह संकट अब सिर्फ़ उत्तर भारत तक सीमित नहीं रहा। मुंबई में AQI लगभग 180, पुणे में 212 और हैदराबाद में 166 के आसपास दर्ज किया गया, जो बताता है कि समस्या देशव्यापी हो चुकी है। IQAir, AQI.in और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के आंकड़े एक कड़वी सच्चाई सामने रखते हैं: बरसों की मॉनिटरिंग, जागरूकता अभियानों और भारी फंडिंग के बावजूद हवा की हालत में ठोस सुधार नहीं आया।
हाल ही में जनाग्रह द्वारा आयोजित राष्ट्रीय राउंडटेबल, “शहरों में वायु प्रदूषण: चुनौतियाँ और आगे का रास्ता”, ने इस संकट की जड़ पर उंगली रखी। सरकार, अकादमिक जगत, परोपकार संस्थानों और सिविल सोसाइटी के 35 से अधिक विशेषज्ञ एक बिंदु पर सहमत थे: डेटा बढ़ा है, लेकिन गवर्नेंस नहीं।

Taj mahal in smoggy


जनाग्रह की एक साल लंबी स्टडी, जो नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (NCAP) और 15वें वित्त आयोग के फंड पर आधारित है, एक बड़ा अंतर उजागर करती है। कुछ बड़े शहरों में फंड का आंशिक उपयोग हुआ, लेकिन 85.5% शहर 2024–25 के PM10 घटाने के लक्ष्य से पीछे हैं। CREA के ताज़ा विश्लेषण बताते हैं कि केवल 20–30% NCAP शहरों में ही प्रदूषण में वास्तविक और टिकाऊ कमी दर्ज की गई है, जबकि अब लक्ष्य 2026 तक 40% कटौती का है।
यह नाकामी केवल इरादों या पैसों की कमी की कहानी नहीं है। देशभर में मॉनिटरिंग नेटवर्क तेज़ी से फैला है, लेकिन वायु प्रदूषण आज भी एक क्षेत्रीय और बहु-क्षेत्रीय समस्या बना हुआ है। परिवहन, निर्माण, कचरा जलाना, उद्योग और शहरों के बाहर की खेती, प्रदूषण के स्रोत हर जगह हैं, मगर ज़िम्मेदारी बिखरी हुई। नगर निकायों से नतीजे तो मांगे जाते हैं, पर न उन्हें पूरा अधिकार मिलता है, न तकनीकी क्षमता, न समय पर फंड।
राउंडटेबल में यह भी साफ़ हुआ कि डेटा बहुत है, पर वही डेटा नीतियों और फैसलों में नहीं उतरता। काग़ज़ों पर अनुपालन दिख जाता है, ज़मीन पर असर नहीं। आईआईटी तिरुपति के डॉ. सुरेश जैन ने चेताया कि प्रदूषण सीमाएँ नहीं मानता; औपचारिक जवाबदेही से आगे बढ़कर साझा ज़िम्मेदारी का ढाँचा बनाना होगा। जनाग्रह के चीफ पॉलिसी एंड इनसाइट्स ऑफिसर आनंद अय्यर ने कहा, “वायु प्रदूषण का हल संभव है, शर्त यह है कि शहर सरकारों को असली ताक़त दी जाए, क्योंकि वही नागरिकों के सबसे क़रीब हैं।” जनाग्रह के सीईओ श्रीकांत विश्वनाथन ने मुख्यमंत्रियों और राज्य सरकारों से अपील की कि क्लीन एयर एजेंडा को शीर्ष प्राथमिकता बनाएं और सिविल सोसाइटी के साथ लंबी अवधि की साझेदारी करें।
इस संकट की इंसानी क़ीमत सबसे ज़्यादा ग़रीबों और बाहर काम करने वालों को चुकानी पड़ती है। यह एक असमान आपदा है, जो अमीर और ग़रीब की सांसों के बीच खाई पैदा करती है, उम्र घटाती है और अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ डालती है। सर्दी 2025 में दिल्ली, आगरा और लखनऊ जैसे शहरों में AQI बार-बार खतरनाक स्तर पार करता रहा, स्कूल बंद हुए, सफ़र मुश्किल हुआ, और रोज़मर्रा की ज़िंदगी ठहर-सी गई। छोटे शहर और कम शहरीकृत राज्य उतने ही जोखिम में हैं, लेकिन कमज़ोर मॉनिटरिंग और संस्थागत ढांचे के कारण वे अक्सर नज़रअंदाज़ रह जाते हैं।
समाधान साफ़ है, पर आसान नहीं। सिर्फ़ मॉनिटरिंग और खर्च की निगरानी से आगे बढ़कर नतीजों पर आधारित सुधार करने होंगे। शहर, ज़िला और राज्य स्तर पर ज़िम्मेदारियाँ स्पष्ट करनी होंगी; सेक्टर-वार उत्सर्जन संकेतक अपनाने होंगे; भरोसेमंद टूल्स, इम्पैक्ट असेसमेंट और प्लानिंग सपोर्ट देना होगा; और फंडिंग में ऐसी पारदर्शिता लानी होगी कि जनता जान सके, पैसा कहाँ गया और क्या बदला।
सर्दी 2025 के आंकड़े एक अंतिम चेतावनी हैं। दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानियों में गिनी जा रही है, आगरा की ऐतिहासिक विरासत धुएँ की चादर में छिपती जा रही है, और करोड़ों लोग रोज़ ज़हरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। अब आधे-अधूरे क़दम काफी नहीं।
स्वच्छ हवा कोई लक्ज़री नहीं, एक मौलिक सार्वजनिक अधिकार है। इसे टालना आने वाली पीढ़ियों को उस संकट के हवाले करना है, जिसे आज रोका जा सकता है। अब “मापने” से आगे बढ़कर “जवाबदेही तय करने” का समय है, वरना यह लोकतंत्र ज़हरीली सांसों पर ही चलता रहेगा

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Thakur Pawan Singh

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