10 मिनट की डिलीवरी: क्विक कॉमर्स की चमक में डूबती किराने की दुकानें, दरवाजे पर ऐप की घंटी, दुकानदार की आह निकली

Monday, 15 December 2025, 8:00:00 PM. Agra, Uttar Pradesh

दरवाजे पर अब पड़ोसी की दस्तक नहीं, ऐप की घंटी बजती है। सब्जी, दूध, दाल-चावल से लेकर दवा और कपड़े तक—सब कुछ उंगली के एक क्लिक पर हाजिर है। न बाजार जाने की झंझट, न पसीना बहाने की जरूरत, और न ही मोलभाव की आवाजें। लेकिन सहूलियत की इस चकाचौंध में एक सन्नाटा भी पसर रहा है—उन मुहल्ले की दुकानों पर, जहाँ कभी रिश्ते बनते थे, लेकिन अब वे दम तोड़ रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार बृज खंडेलवाल का यह विशेष लेख उसी दर्द और बदलते दौर की दास्तां बयां करता है।

10 मिनट की डिलीवरी:
क्विक कॉमर्स की चमक में डूबती किराने की दुकानें
दरवाजे पर ऐप की घंटी, दुकानदार की आह निकली


विचार: बृज खंडेलवाल


दरवाज़े पर दस्तक अब पड़ोसी की नहीं, ऐप की होती है। सब्ज़ी, दूध, दाल‑चावल से लेकर दवा और कपड़े तक, सब कुछ उँगली के एक क्लिक पर हाज़िर है। न बाज़ार जाने की झंझट, न पसीना, न मोलभाव की आवाज़ें। न दुकानदार की पहचान, न उधारी का भरोसा, न यह गुज़ारिश कि “भैया आज थोड़ा कम कर दो, धनिया‑मिर्च तो डाल दो।”
सहूलियत की इस चकाचौंध में समाज धीरे‑धीरे सुस्त पड़ता जा रहा है। लोग चलना भूल रहे हैं, आंटियां चारदीवारी में कैद होकर मोटापे और तन्हाई की शिकार हो रही हैं। मुहल्ले की दुकानें, जहाँ रिश्‍ते बिकते नहीं थे, बनते थे, दम तोड़ रही हैं। शॉपिंग अब तजुर्बा नहीं रही, बस एक डिलीवरी स्लॉट बन कर रह गई है। होम डिलीवरी सर्विस ने सिर्फ़ बाज़ार का नक्शा नहीं बदला, उसने बनियावाद की रूह, सौदेबाज़ी की तहज़ीब और इंसानी रिश्तों की गर्माहट पर सीधा वार किया है। सहूलियत की कीमत हम समाज से चुका रहे हैं।

Brij Khandelwal
बृज खंडेलवाल


सुबह‑सुबह, जब आगरा की गलियों में दूध, अगरबत्ती और बीती रात की धूल की मिली‑जुली खुशबू तैर रही होती है, हीरा लाल अपनी छोटी‑सी जनरल स्टोर की जंग लगी शटर उठाकर एक खामोश कॉलोनी में बैठ जाता है, उन क़दमों का इंतज़ार करते हुए जो अब आते ही नहीं। कभी यही सुबहें सलाम‑दुआ, गप्प‑शप्प, काउंटर पर सिक्कों की खनक और टॉफी को लेकर बच्चों की नोकझोंक से भरपूर होती थीं। आज बस डिलीवरी बाइकों की हल्की घरघराहट है, जो उसकी दुकान के सामने से बिना रुके निकल जाती हैं; राइडर की निगाहें मोबाइल पर होती हैं, दुकान की शीशे पर नहीं।
हीरा लाल देखता है कि कार्टन उसके पड़ोसियों के दरवाज़ों पर उतर रहे हैं, जबकि उसकी दुकान की शेल्फ़ों पर रखा माल जस का तस पड़ा है, रजिस्टर उसकी सब्र की तरह पतला होता जा रहा है।
गली के उस पार समोसे और नमकीन के लिए मशहूर नाश्ते वाला अपने ठेले से टेक लगाकर खामोशी से हामी भरता है। वह ठंडी साँस लेकर कहता है, “लोग अब भूख से ज़्यादा ऐप पर भरोसा करते हैं।” अब भूख की सुनवाई खुशबू से नहीं, एल्गोरिद्म से होती है। कॉलोनी के लोग अब भी खाते हैं, खरीदते हैं, खर्चा करते हैं, मगर अब उन लोगों से नहीं लेते जिनको वे जानते हैं।
हीरा लाल के लिए ये सिर्फ़ मुक़ाबला नहीं, अपना वजूद मिटने का एहसास है। बाज़ार कहीं और शिफ्ट नहीं हुआ, स्क्रीन के अंदर ग़ायब हो गया है, जिसने दुकानदारों को पुराना अवशेष बना दिया और मुहल्लों को बस डिलीवरी पॉइंट में बदल डाला।
भारत में क्विक कॉमर्स, यानी 10–30 मिनट में किराना और रोज़मर्रा का सामान घर पहुँचा देने वाले प्लेटफॉर्म्स, ने शहरों की ख़रीदारी की आदत पूरी तरह बदल डाली है। व्यस्त ज़िंदगी के बीच बेमिसाल सहूलियत देने वाले Blinkit, Zepto, Swiggy Instamart जैसे प्लेटफॉर्म, और Flipkart व Amazon की नई एंट्रीज़, इस तेज़ उछाल के बड़े खिलाड़ी बन चुके हैं। यह सेक्टर 2025 में तकरीबन 5.4 अरब डॉलर के क़रीब पहुँच चुका है और अन्दाज़ा है कि 2030 तक यह बढ़कर 35 अरब डॉलर तक जा सकता है।
आज यह बड़े खिलाड़ियों के बीच 95% से ज़्यादा मार्केट पर क़ब्ज़ा जमाए बैठा है , Blinkit के पास लगभग 46% हिस्सा, Zepto के पास 29% और Instamart के पास 25% के आसपास। 2025 के त्योहारी सीज़न में इन प्लेटफॉर्म्स पर ऑर्डर की तादाद 120% तक बढ़ गई, जिसकी वजह से ई‑कॉमर्स की कुल बिक्री के आँकड़े पहले ही हफ़्ते में 60,000 करोड़ रुपये से ऊपर चले गए। Blinkit, Zepto और Instamart अब इस तेज़ रफ़्तार, सख़्त मुक़ाबले वाले बाज़ार के लगभग तमाम हिस्से पर हावी हैं।
लेकिन इस तेज़ तरक़्क़ी और ग्राहक की ख़ुशी की कहानी के पीछे भारत की रिटेल रीढ़, मुहल्ले की किराना दुकानों का गहरा और दर्दनाक बिखराव छुपा है। तक़रीबन 1.3 से 1.5 करोड़ तक फैली ये पारिवारिक दुकानें भारत की ग़ैर‑औपचारिक अर्थव्यवस्था की जान हैं। ये लाखों लोगों को रोज़गार देती हैं और जीडीपी में करीब 45–50% तक की हिस्सेदारी मानी जाती है। ये सिर्फ़ दुकानें नहीं, भरोसे पर टिकी छोटी‑छोटी दुनिया हैं , लचीली उधारी, पीढ़ियों से बने रिश्ते और मोहल्ले की एक तरह की पंचायत। सिर्फ़ 2024 में ही 2 लाख से ज़्यादा किराना दुकानें बंद हो गईं, और सबसे ज़्यादा चोट शहरों और मेट्रो में पड़ी।
2024 के आख़िर में JP Morgan की एक स्टडी के मुताबिक़, मुंबई में 60% ऑफ़लाइन ग्रॉसरी स्टोर्स ने माना कि उनकी बिक्री सीधा‑सीधा क्यू‑कॉमर्स की “डार्क स्टोर्स” बढ़ने की वजह से गिरी है , ये वही छोटे‑छोटे गोदाम हैं जो रिहायशी इलाक़ों में जगह‑जगह खुल रहे हैं। शहरी किराना दुकानों की आमदनी और क़दमों की रौनक 2025 की फ़ाइनेंशियल ईयर में 12–30% तक घटी। सर्वे बताते हैं कि क्यू‑कॉमर्स यूज़ करने वाले 46% ग्राहकों ने किराना से ख़रीदारी कम कर दी और कम से कम एक चौथाई खर्च अब ऑनलाइन शिफ्ट कर दिया है।
ये विस्थापन कैसे हो रहा है, तस्वीर काफ़ी साफ़ है। क्यू‑कॉमर्स के ये बड़े खिलाड़ी, जो वेंचर कैपिटल के गहरे जेबों से चलते हैं, इतने आक्रामक डिस्काउंट और ‘दाम तोड़’ ऑफ़र देते हैं कि छोटी दुकानें उस रेट पर माल बेच ही नहीं सकतीं। डार्क स्टोर्स का घना जाल डिलीवरी को तेज़ तो बनाता है, लेकिन इससे एक बंद‑सी, कंट्रोल की हुई सप्लाई चेन बनती है, जिसमें पारम्परिक डिस्ट्रीब्यूटर और होलसेलर हाशिए पर चले जाते हैं।
इंसानी क़ीमत और भी भारी है। कई पुश्‍तों से दुकान चलाने वाले अब घटते मुनाफ़े के दबाव में मजबूर होकर गिग इकॉनमी के कामों की तरफ़ धकेले जा रहे हैं , कई बार उन्हें उसी कंपनी के लिए डिलीवरी करनी पड़ती है, जो उनकी अपनी दुकान की कमर तोड़ रही है। इनके साथ‑साथ लोकल सप्लायर, पैकेजिंग वाले और दूसरे छोटे धंधे भी चुपचाप चोट खा रहे हैं। Kearney जैसी कंसल्टिंग फ़र्मों के विश्लेषण बताते हैं कि अब ताक़त बिखरे हुए, मोहल्ला‑स्तर के छोटे कारोबारियों के हाथ से निकलकर चंद बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के पास सिमट रही है।
सांस्कृतिक नुक़सान भी कम नहीं है। किराना दुकान केवल सामान बेचने की जगह नहीं थी , यह गप‑शप, मोहल्ले की ख़बर, और मुसीबत में बिना ज़मानत के उधार देने वाली एक छोटी सामाजिक संस्था थी। उसकी जगह अब ऐप का ठंडा इंटरफ़ेस, एल्गोरिद्म की मेहरबानी और दरवाज़े पर दो मिनट की खामोश डिलीवरी ने ले ली है। यह नया मॉडल तात्कालिक, बेवजह ख़रीद बढ़ाता है, प्लास्टिक और पैकेजिंग का पहाड़ खड़ा करता है और उस स्थानीय, निजी लेन‑देन को मिटाता जाता है, जिसने सदियों से भारतीय मुहल्लों की रूह को पहचान दी थी । क्यू‑कॉमर्स कोई गुज़रता हुआ फैशन नहीं, शहरी रिटेल का बुनियादी ढाँचा बदलने वाली ताक़त है। ख़तरा ये है कि रफ़्तार और पैमाने की इस अंधी दौड़ में कहीं भारत अपने ही मोहल्लों की वह ज़िंदा, इंसानी पैमाने की अर्थव्यवस्था न खो दे, जो उसकी बस्ती को मज़बूती और चरित्र देती है।

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