🕰️ आगरा | शनिवार, 18 अक्टूबर 2025 | दोपहर 2:54 बजे IST
भारत के बहुलवादी इतिहास की नींव रखने वाले मुगल सम्राट अकबर की जयंती 15 अक्टूबर को आई और बिना किसी सरकारी आयोजन के चली गई। आगरा, जिसे कभी अकबराबाद कहा जाता था, आज ताजमहल के संगमरमर में सिमट गया है, लेकिन अकबर की समावेशी सोच और सांस्कृतिक दृष्टिकोण को फिर से याद करने की ज़रूरत है। सवाल है: क्या हमें अकबर का जन्मदिन मनाना चाहिए? जवाब है — ज़रूर, क्योंकि उनकी विरासत आज भी भारत की आत्मा में गूंजती है।
क्यों मनाएं मुगल बादशाह अकबर का बर्थडे?
बृज खंडेलवाल
ताजमहल की छाया में बसा आगरा, जिसे कुछ लोग कभी अकबराबाद भी कहते थे, किसी वक्त अपने तथाकथित नव रत्नों के लिए मशहूर था। एक पूर्व मंडलायुक्त प्रदीप भटनागर ने इनकी खूबसूरत मूर्तियां बनवाईं थीं जो विवाद के कारण कहीं किसी कोने में पड़ी होंगी। एक चर्चित पूर्व मेयर ने आगरा का नाम बदलने की पहल की थी। उधर आगरा नगर निगम ने आगरा का जन्म दिन मनाने के लिए एक तारीख तय करने के लिए एक्सपर्ट्स की समिति बनाई थी। बहरहाल फिलहाल मुद्दा ये है कि आगरा की पहचान शाह जहां के ताज महल से हो या अकबर महान की विचार धारा से। पहले 15 अक्टूबर को अकबर बादशाह की बर्थ डे मनाई जाती थी। फिर राजनैतिक माहौल बदला तो अकबर sideline हो गए और नए icons आ गए।

आगरा शहर की पहचान शाहजहाँ के संगमरमर वाले ताज से है, लेकिन अकबर की सहिष्णुता और समावेशी विचारधारा ने भारत की बहुलवादी नींव रखी। हालाँकि, इस वर्ष 15 अक्टूबर को उनकी जयंती आई और चली गई, बिना किसी सरकारी कार्यक्रम या स्मरण के। पुरातत्व विभाग ने कोई माला नहीं चढ़ाई, न प्रशासन ने कोई आयोजन किया। यह अफ़सोसजनक है कि जिस सम्राट ने आगरा को अपनी राजधानी बनाकर इसे वैश्विक मानचित्र पर स्थापित किया, उसी की याद अब धुंधली पड़ रही है। अकबर उन शासकों में से थे जिन्होंने सत्ता को संवाद और सहयोग का माध्यम बनाया। उनका शासन युद्धों से आगे बढ़कर सहिष्णुता का प्रतीक था। उन्होंने ‘सुलह-ए-कुल’ की नीति अपनाई, जो सबके साथ शांति का मूलमंत्र थी। जब धार्मिक कट्टरता से ऊबकर उन्होंने 1582 में ‘दीन-ए-इलाही’ की शुरुआत की, तो यह कोई नया मज़हब नहीं, बल्कि उनकी व्यक्तिगत आस्था थी। इसमें हिंदू, जैन, पारसी और ईसाई विचारों का समावेश था, जो साबित करता है कि ईश्वर तक पहुँचने के रास्ते अनेक हैं। उनकी विरासत केवल नीतियों तक सीमित नहीं। अकबर ने महाभारत, रामायण और उपनिषद जैसे ग्रंथों का फ़ारसी अनुवाद करवाया, ताकि विभिन्न समुदाय एक-दूसरे की संस्कृति समझ सकें। मंसबदारी प्रणाली के ज़रिए उन्होंने योग्यता आधारित प्रशासन को बढ़ावा दिया, जहाँ पद धर्म या जाति नहीं, बल्कि काबिलियत से तय होते थे। उनकी स्थापत्य कला भी इसी मिलन की मिसाल है—आगरा का लाल किला, सिकंदरा का मकबरा और फतेहपुर सीकरी की इमारतें हिंदू व इस्लामी शैलियों का अनोखा संगम हैं। फतेहपुर सीकरी को यूनेस्को ने विश्व धरोहर का दर्जा दिया है। मुग़ल इतिहासकार प्रो. आर. नाथ अपनी किताब में लिखते हैं, “आगरा शाहजहाँ के ताजमहल से पहचाना जाता है, लेकिन भारत की बहुलवादी नींव अकबर ने रखी। उनके शासन में फ़ारसी, भारतीय और मध्य एशियाई संस्कृतियों का सुंदर मेल हुआ।” फिर भी, आज यह विरासत उपेक्षा का शिकार है। स्थानीय समूह मांग कर रहे हैं कि सिकंदरा और फतेहपुर सीकरी पर अतिक्रमण रोका जाए। साथ ही, वर्षों से अधूरा मुग़ल संग्रहालय—जिसका नाम अब छत्रपति शिवाजी महाराज संग्रहालय है—जल्द खोला जाए। इसमें अकबर काल की दुर्लभ पांडुलिपियाँ और चित्र हैं, जो उनकी बौद्धिक धरोहर को जीवंत कर सकते हैं। यहां ये भी बताना भी जरूरी है कि बादशाह अकबर का शुरुआती जीवन एक कट्टरवादी, क्रूर शासक के दौर से गुजरा। बाद के वर्षों में भारत की ऊर्जा, संस्कृति और टैलेंट्स के वो कायल हुए और अपनी मानसिकता में बदलाव किया। ये तथ्य भी गौर तलब है कि हिन्दू धार्मिक स्थलों, तथा उनकी संस्कृति को कुचलने के कुप्रयास इसी मुगल पीरियड में हुए। आजादी के बाद की सरकारों ने इतिहास लेखन को विकृत किया और अनेकों तथ्य छिपाए गए। लेकिन जहां तक बादशाह अकबर का सवाल है, अधिकांश हिस्टोरियंस उनकी विचारधारा को पॉजिटिव क्रेडिट ही देते हैं। आज विकास की दौड़ में इतिहास भुलाया जा रहा है। लेकिन उम्मीद बाकी है—ताज महोत्सव जैसे आयोजनों में अगर अकबर की सहिष्णुता और विचारों को जगह मिले, तो यह आगरा ही नहीं, पूरे देश के लिए गर्व का विषय होगा। अकबर सिखाते हैं कि सत्ता से ज़्यादा ताकत उस सोच में है जो सबको साथ लेकर चलती है।
बृज खंडेलवाल
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