ऐसे जन्मा माफिया डेविड मारियो
ऐसे जन्मा माफिया डेविड मारियो
डॉ. अनिल दीक्षित
उत्तर प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों का हाल पहले ऐसा नहीं था, आम तौर पर सबकुछ ढर्रे पर ही था। लेकिन, पैसे की धमक ने माफिया पैदा किया, पाला और उसे इतना ताकतवर बना दिया कि वो तंत्र को अपनी तरह घुमाने लगा। तंत्र के आत्मसमर्पण से ऐसा दुस्साहस जन्मा कि वो सुधार की नीयत से आए लोगों को डंसने लगा।
बात 2003 की है। प्रदेश के विश्वविद्यालयों में सबसे बदनाम कानपुर विश्वविद्यालय तत्कालीन कुलपति की मेहनत से पटरी पर आने लगा था। पर, आगरा यूनिवर्सिटी जैसे पैर पर कुल्हाड़ी मारने की ठान चुकी थी। और तभी विश्वविद्यालय में माफिया का पदार्पण हुआ। पांच सौ के आसपास संबद्ध कॉलेजों की वजह से विश्वविद्यालय के पास धन का अथाह भंडार था। इसके अलावा बहुत कम लोग जानते हैं कि परीक्षा से संबंधित गोपनीय कार्य का ऑडिट महज़ एक मजाक की तरह होता है। तर्क ये है कि गोपनीय कार्य कहां कराया गया, यदि इसका खुलासा कर दिया जाएगा तो फिर कुछ भी गोपनीय रहेगा ही नहीं। यानी सिर्फ ये लिखने से ही कि प्रश्नपत्रों और उत्तर पुस्तिकाओं की छपाई पर इतनी राशि खर्च हुई, व्यय को स्वीकृति मिल जाती है। इस बार यह बहाना बनाकर कि मूल्यांकन के बाद परीक्षाफल तैयार करने के लिए यदि एजेंसी को ठेका दे दिया जाए तो काफी काम सुचारू हो जाएगा, छात्रों की समस्या समाप्त हो जाएंगी, घोटाले की रूपरेखा बना ली गई। चूंकि न बिल देना है, न पार्टी का नाम लिखना है, बस भुगतान किया जाना है तो फंसने की संभावना भी नहीं थी। पहला लाभ करोड़ों के कमीशन का था जो जेबों में सीधा जाना था।
वित्त संबंधी कार्यों के लिए विश्वविद्यालय में वित्त समिति होती है और वित्त अधिकारी की नियुक्ति शासन से की जाती है, तो ये दोनों बाधाएं पैसे से पार हो गईं। दलाली पेटों में समाने लगी। तमाम आपाधापी हुई। कभी माइंडलॉजिक तो कभी कोई और, कंपनी आती रहीं, जाती रहीं, पैसे की बंदरबांट होती रही। इसी बीच, डेविड मारियो डेनिस मैदान में उतर आया। अंबेडकर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति से मारियो की मुलाकात एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज के निदेशक ने कराई। बात सेट हो गई। मारियो को ठेका मिल गया। इसके बाद मारियो ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मुझे याद है कि एक दिन वो था जब मारियो तत्कालीन कुलपति से मिलने के लिए उनके निजी सचिव डॉ. सुभाष मनचंदा के केबिन में बार-बार समय मांग रहा था। और एक दिन वो आया, जब वो इतना ताकतवर हो गया कि शिक्षक उसके दरबारी हो गए। कोई काम ऐसा नहीं बचा जो वो चाहे, और न मिले। पैर इधर उधर भी फैले। अन्य सरकारी और निजी विश्वविद्यालय में उसे ठेके हासिल होने लगे। विदेश में पैसा भेजने की हैसियत हो गई।
और जब कोई इतना शक्तिशाली हो जाता है तो अति करने से भी नहीं हिचकता। यही अति उसने अंबेडकर विश्वविद्यालय में की। लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने के कुकर्म के क्रम में वो मेडिकल छात्रों की कॉपियां बदलकर ऐसे छात्रों को डॉक्टर बनाने लगा, जो बिना ज्ञान डॉक्टर बनकर लोगों की सिर्फ जान ही ले सकते थे। असली डिग्री से फर्जी डॉक्टरों की फैक्ट्री। विश्वविद्यालय के ठेकों से अरबपति बनने के बाद वह गैरकानूनी कामों के मैदान में उतर चुका था। ये उसका बेखौफ होना था। और यहीं से वह मद में चूर हो गया। इधर अंबेडकर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो. विनय कुमार पाठक जैसे सबकुछ सुधारने का जुनून बना चुके थे। माफिया को जब लगा कि वह फंस सकता है तो उसने प्रो. पाठक पर प्रहार किया। अपने दलाल शिक्षकों और अन्य विश्वविद्यालय में तैनात अपने सहयोगियों की मदद से उसने साजिश का तानाबाना बुना।
इन्हीं लोगों ने प्रो. पाठक के खिलाफ झूठी गवाही भी दी। एक सहयोगी तो माफिया को बचाने के लिए इतना व्यग्र था कि एसटीएफ के न बुलाने पर भी गवाही देने पहुंच गया। मीडिया मैनेज किया गया, पैसे के साथ गिफ्ट बांटे गए। नतीजतन, जो बोला, वही छापा जाने लगा। एक ही झूठ बार बार घुमा फिराकर छापा गया। कमाल देखिए कि किसी अन्य अपराधी की फोटो बार-बार छापने वाली मीडिया ने डेविड मारियो की फोटो आज तक नहीं छापी है। जैसे माफिया की सार्वजनिक छवि बचाने की कोशिश की जा रही है। मंशा ये थी कि प्रो. पाठक ही नहीं, भविष्य में बाधा बनने का मन रखने वाले बाकी लोग भी समझ जाएं कि माफिया से टकराना इतना आसान नहीं है।
विशेष बात है कि माफिया ने आगरा ही नहीं, अपितु अन्य विश्वविद्यालयों में तैनात अपने सहयोगियों से भी कुकर्म में पूरी मदद ली। प्रवर्तन निदेशालय की जांच अपने अंजाम की ओर है। यह लगभग साबित है कि माफिया ने शिक्षा का बेड़ा गर्क किया है। सत्य की जीत हो रही है, प्रो. पाठक काजल की कोठरी से बेदाग निकलकर आ रहे हैं।
डॉ. अनिल दीक्षित
( लेखक पूर्व संपादकीय प्रमुख, दैनिक जागरण आईनेक्स्ट,कानपूर रहे है )
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