डॉ. अनिल दीक्षित : मुन्नाभाई डॉक्टर भी बनाए माफिया ने!

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डॉ. अनिल दीक्षित : मुन्नाभाई डॉक्टर भी बनाए माफिया ने!

डॉ. अनिल दीक्षित

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं)

                 डॉ. अनिल दीक्षित

उत्तर प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों का संभवतया सबसे बड़ा घोटाला आगरा में फूट रहा है। परीक्षा तंत्र की इतनी बड़ी धांधली, कि हर साल माफिया अरबों रुपए कमा रहा है। ऊपर से नीचे तक, सरकारी पैसा बहकर माफिया और उसके गुर्गों की जेब में लबालब भरा है। और, सब कुछ इतना संगठित है, कि रोकने पर आरोपों में फंसा दो। सरकारी एजेंसियों की आंखों में धूल झोंककर झूठे गवाहों से घेर दो। माफिया ने ऐसा खेल रचा है कि वह छात्र जिन्हें मेडिकल में प्रवेश तक मिलना संभव नहीं था, वह टॉपर बन रहे हैं और उनमें से तमाम डॉक्टर बनकर मरीजों को लूट और मार रहे हैं।

आगरा के डॉक्टर भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में एमबीबीएस के साथ ही आयुष की डिग्रियों में बड़ा घोटाला हुआ है। डेढ़ लाख रुपए प्रति कॉपी की दर से कॉपियां बदली गई हैं, तमाम ऐसे लोग जो कंपाउंडर बनने के लायक भी नहीं थे, आज डॉक्टर बनकर प्रैक्टिस कर रहे हैं। मेधावी क्लास में पीछे बैठे हैं, और फर्जी टॉपर बनकर आगे। कल्पना कीजिए कि इन ‘मुन्नाभाई डॉक्टरों’ के हाथों कितने लोग असुरक्षित हुए हैं, न जाने कितनों को यह गंभीर बीमार कर देते हैं और कुछ को मार भी दे रहे होंगे। कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. विनय कुमार पाठक ने अंबेडकर विश्वविद्यालय के कुलपति के प्रभार के दौरान ये घोटाला खोला। बदलने जा रहीं कॉपियां पकड़ने के बाद एफआईआर हुई, और आज ये घोटाला बोतल के जिन्न की तरह बढ़ता जा रहा है। 

जांच एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय को शक है कि करीब 100 छात्रों की कॉपियां बदलकर रिजल्ट में हेराफेरी हुई है। ये वर्तमान आंकड़ा है। जेल में बंद माफिया डेविड मारियो डेनिस की सक्रियता कई बरसों से है, यानी घोटाले का आकार कई गुना है। परीक्षा केंद्र की मिलीभगत से हजारों रिजल्ट में ‘चमत्कार’ दिखाया गया है। बात यहीं खत्म नहीं होती। माफिया के दलाल छात्र नेताओं और शिक्षकों के अलावा कुछ निजी शिक्षण संस्थानों के लोगों ने भी जमके वारेन्यारे किए हैं। उनकी संपत्ति पिछले कुछ वर्षों में कई गुना बढ़ी है। सोने में बड़ा इन्वेस्टमेंट किया गया है। उधर ,रैकेट के अन्य कुछ सदस्य भी जेल में बंद हैं, ईडी पूछताछ के लिए उन्हें रिमांड पर लेने की तैयारी कर रही है। वैसे, शिकंजा इतना कड़ा है कि कोर्ट में सरकारी वकील की पैरवी की बदौलत जमानत नहीं मिल पा रही।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि माफिया पैदा क्यों हुआ और पनपा कैसे? दैनिक जागरण के लिए वर्ष 2001 से उच्च शिक्षा की रिपोर्टिंग करते समय मैंने उच्च शिक्षण संस्थानों में परीक्षा तंत्र को पटरी से उतरते हुए बहुत नजदीक से देखा है। इसी अंबेडकर विश्वविद्यालय के परीक्षा और गोपनीय विभाग सहित परीक्षा तंत्र से जुड़े हुए लगभग डेढ़ सौ कर्मचारी थे। लेकिन अचानक मूल्यांकन का पूरा ठेका बाहरी एजेंसी को दिया जाने लगा। विश्वविद्यालय के एक कैंपस में पूरा ब्लॉक घेरकर ये एजेंसी मूल्यांकन के नाम पर घोटाले भी करती रही। विवि में बीएड के बड़े घोटाले हुए। यह माफिया का पहला खेल था जब प्रति छात्र तीस हजार रुपए तक लेकर बीएड में 75% तक अंक दिए गए। तमाम कॉलेजों में खाली सीट दिखाकर फर्जी रिजल्ट जनरेट किए गए।

घोटाले की जांच एसटीएफ के हवाले है लेकिन नतीजा शून्य है। कुछ पर कार्रवाई की चुन्नपूजा हुई जबकि ज्यादातर फर्जी डिग्री के शिक्षक आज भी सरकारी विद्यालय में पढ़ा रहे हैं। बहरहाल, जांच एजेंसी खुद भी कटघरे में है। यही जांच एजेंसी मारियो के मामले में भी आरोपित हुई है। माफिया के नजदीकी सरकारी और निजी संस्थानों के शिक्षकों ने झूठी गवाहियों से यहीं कुचक्र रचा था। अंबेडकर विवि से नाता न होने के बावजूद कुछ लोग निजी खुन्नस में गवाही देने पहुंचा दिए गए थे। फिलहाल, सच पर जमी झूठ की परतें उधड़ने का दौर है। ईडी की जांच सही दिशा में है। सारे अखबार देखिए, एसटीएफ में फर्जी एफआईआर के दौरान कपोल कल्पित लिखने वाला मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी अब कुछ सही तस्वीर दिखाने लगा है क्योंकि सच जो है, वो तो दिखाना ही पड़ता है। सारे गिफ्ट और भुगतान भूल जाने होते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि शिक्षा के पावन क्षेत्र से गंदगी छंटेगी।

 

 

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