संकट में जीवनरेखा: भारत की नदियाँ मदद के लिए पुकार रही हैं — क्या हम सुनेंगे, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए?

Sun, 21 Sep 2025 02:30 PM IST, आगरा, भारत।

मथुरा में यमुना किनारे शाम ढल रही है। आरती की घंटियाँ बज रही हैं, अगरबत्तियाँ जल रही हैं, पुजारी मंत्रोच्चार कर रहे हैं, और सैकड़ों श्रद्धालु पवित्रता व मोक्ष की कामना में एकत्र हैं। लेकिन गेंदा फूलों की महक के उस पार एक कड़वी हक़ीक़त है—प्लास्टिक कचरा यमुना में तैर रहा है, रासायनिक झाग डरावने अंदाज़ में चमक रहे हैं। यह नदी — जो करोड़ों लोगों की जीवनरेखा है — उपेक्षा के बोझ तले कराह रही है। यही डरावना दृश्य आज गंगा, कावेरी, नर्मदा और देश की लगभग हर प्रमुख नदी के किनारों पर देखने को मिल सकता है। नदियों की दुर्दशा सिर्फ एक पर्यावरणीय गिरावट की कहानी नहीं है; यह एक निर्णायक मोड़ है। अब लड़ाई केवल सफ़ाई अभियान या जागरूकता रैलियों की नहीं, बल्कि अस्तित्व, इंसाफ़ और एक इंक़लाबी सोच की है — मंदिरों की तरह नदियों को भी कानूनी अधिकार देने की ज़रूरत की लड़ाई है।

नदियाँ मदद के लिए पुकार रही हैं — क्या हम सुनेंगे, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए?

बृज खंडेलवाल
मथुरा में यमुना किनारे शाम ढल रही है। आरती की घंटियाँ बज रही हैं, अगरबत्तियाँ जल रही हैं, पुजारी मंत्रोच्चार कर रहे हैं, और सैकड़ों श्रद्धालु पवित्रता व मोक्ष की कामना में एकत्र हैं। लेकिन गेंदा फूलों की महक के उस पार एक कड़वी हक़ीक़त है—प्लास्टिक कचरा यमुना में तैर रहा है, रासायनिक झाग डरावने अंदाज़ में चमक रहे हैं, और यह नदी — जो करोड़ों लोगों की जीवनरेखा है — उपेक्षा के बोझ तले कराह रही है। यही दृश्य गंगा, कावेरी, नर्मदा के किनारों पर देखने को मिल सकते हैं।

बृज खंडेलवाल
बृज खंडेलवाल


नदियों की दुर्दशा सिर्फ एक पर्यावरणीय गिरावट की कहानी नहीं है; यह एक निर्णायक मोड़ है। अब लड़ाई केवल सफ़ाई अभियान या जागरूकता रैलियों की नहीं, बल्कि अस्तित्व, इंसाफ़ और एक इंक़लाबी सोच की है —मंदिरों की तरह नदियों को भी कानूनी अधिकार देने की ज़रूरत की लड़ाई है।
पर्यावरणविद् डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, “भारत की नदियाँ, जिन्हें कभी देवियों के रूप में पूजा गया, आज इतिहास के सबसे बड़े संकट से गुज़र रही हैं। गंगा, यमुना और अन्य जलधाराएँ अब ज़हर से भरी नसों में बदल चुकी हैं — बिना उपचार के नालों का पानी, फ़ैक्टरी का मल, रेत माफ़िया की लूट और बाँधों की अंधी दौड़ ने इन्हें बेहाल कर दिया है। त्योहारों में जिन पवित्र जलों का सम्मान किया जाता है, वही जल अब प्लास्टिक बोतलों, कीटाणुओं और ज़हरीले रसायनों से भर चुका है। सरकार की करोड़ों की योजनाएँ, जैसे ‘नमामि गंगे’, बस घोषणाएँ रह गई हैं — प्रदूषण बढ़ता जा रहा है और तथाकथित ‘विकास’ के नाम पर नदियाँ दम तोड़ रही हैं।”
दुनिया के कई देशों में अब हालात बदल रहे हैं। इक्वाडोर, कोलंबिया और न्यूज़ीलैंड ने अपनी नदियों और प्रकृति को कानूनी अधिकार दे दिए हैं। न्यूज़ीलैंड की व्हांगानुई नदी को अब एक जीवित इकाई के रूप में मान्यता मिली है — यानी अगर कोई नदी को नुक़सान पहुँचाए, तो उसे इंसान को नुक़सान पहुँचाने के बराबर माना जाएगा।

मथुरा में यमुना नदी की प्रदूषित धारा, जिसमें प्लास्टिक और रासायनिक झाग तैर रहे हैं, नदी को कानूनी अधिकार देने की आवश्यकता पर जोर देती हुई छवि


भारत ने भी 2017 में एक ऐतिहासिक कोशिश की थी, जब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने गंगा और यमुना को “कानूनी व्यक्ति” घोषित किया था — जिन्हें सुरक्षा, पुनर्जीवन और न्याय पाने का अधिकार हो। मगर जल्द ही राजनीतिक हिचकिचाहट और कानूनी पेचों ने इस आदेश को ठंडे बस्ते में डाल दिया। अगर यह व्यवस्था लागू होती, तो नदियाँ अपने प्रदूषकों पर मुकदमा दायर कर सकतीं, और पर्यावरण की कहानी कुछ और होती।
फ्रेंड्स ऑफ वृंदावन के संयोजक जगन्नाथ पोद्दार कहते हैं, “स्थिति बेहद गंभीर है। गंगा बेसिन भारत की एक-चौथाई भूमि को सींचता है, 40 करोड़ लोगों और अनगिनत जीवों को पोषण देता है। यह किसानों, मछुआरों, और दुर्लभ जीव जैसे गंगा डॉल्फिन और घड़ियाल के जीवन से जुड़ा है। मगर अब बाँधों ने ऊपरी प्रवाह को सुखा दिया है, और निचले इलाकों में नालों व रसायनों ने यमुना को ज़हरीला बना दिया है।”
रेत खनन, नदियों को जोड़ने की योजनाएँ (जैसे केन-बेतवा प्रोजेक्ट), और बेपरवाह जलमार्ग विकास ने नदी किनारों को खोखला कर दिया है। जलवायु परिवर्तन ने संकट को और बढ़ा दिया है — गंगोत्री ग्लेशियर हर साल 22 मीटर सिकुड़ रहा है, जो दो दशक पहले की तुलना में दुगुनी तेज़ी है। इससे न केवल जैव विविधता बल्कि खेती, स्वास्थ्य और भारत की सांस्कृतिक आत्मा भी ख़तरे में है, कहते हैं बायो डायवर्सिटी विशेषज्ञ डॉ. मुकुल पंड्या।
2014 में बीजेपी ने गंगा को अविरल और निर्मल बनाने के वादे किए थे, लेकिन आज हालत पहले से बदतर है। राष्ट्रीय गंगा परिषद की ज़रूरी बैठकें तक नहीं हो पाई हैं। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम जैसे क़ानून आर्थिक प्राथमिकताओं के आगे बेमायने साबित हो रहे हैं।
नदियों के बारे में जानकारी रखने वाले प्रोफेसर पारसनाथ चौधरी कहते हैं, “अगर नदियों को अधिकार दिए जाएँ तो इसका मतलब होगा — उनके बहने का, साफ़ रहने का, जीवों को पोषित करने का और अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने का हक़ देना। नदियों के अपने संरक्षक हों, जो प्रदूषकों पर मुकदमा करें, हर्जाना माँगें, और पुनर्जीवन योजनाओं की निगरानी करें।”
सच्ची संरक्षकता तभी संभव है जब इसमें सिर्फ़ सरकारी अफ़सर नहीं, बल्कि मछुआरे, किसान, स्थानीय समुदाय, परंपरागत रक्षक, और सिविल सोसायटी भी शामिल हों — जैसे न्यूज़ीलैंड में माओरी समुदाय की भूमिका है। एक स्वतंत्र संस्था, जो राजनीतिक दबाव से मुक्त हो, पूरे नदी तंत्र — हिमालय से डेल्टा तक — की निगरानी करे, यही असली रास्ता है।
लेकिन केवल कानूनी अधिकार काफी नहीं। हमें समाज और संस्कृति में बदलाव लाना होगा — नदियों को रिश्तेदार की तरह, न कि संसाधन की तरह देखना होगा। राजनीतिक दलों को घोषणाओं से आगे बढ़कर नदियों के अधिकारों को अपने संकल्पों में शामिल करना होगा।
अगर हमने अब भी नहीं सुना, तो हमारी नदियाँ भी उन प्राचीन सभ्यताओं की तरह लुप्त हो जाएँगी जो अपने जलस्रोतों के साथ मिट गईं।
नदियों को बोलने और न्याय माँगने का अधिकार देना, शायद हमारे पर्यावरण और आत्मा — दोनों को फिर से जीवित करने की आख़िरी उम्मीद है।

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बृज खंडेलवाल

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