Tue, 07 Oct 2025 02:30 AM IST, आगरा, भारत।
भारत की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट, जो देश के एक सौ चालीस करोड़ (140 करोड़) से अधिक नागरिकों के लिए न्याय की अंतिम उम्मीद है, वहाँ सोमवार, छह अक्टूबर दो हज़ार पच्चीस को एक ऐसी अभूतपूर्व घटना घटी जिसने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। भरी अदालत में, एक वकील ने देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बीआर गवई पर जूता फेंकने का प्रयास किया।
यह घटना न केवल न्यायालयों की पवित्रता और सुरक्षा पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि कैसे राजनीतिक और धार्मिक भावनाएँ अब न्यायपालिका की स्वतंत्र कार्यप्रणाली में सीधे हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रही हैं।

प्राप्त जानकारी के अनुसार, यह अप्रत्याशित और अशोभनीय घटना उस समय हुई जब अदालत की कार्यवाही सामान्य रूप से चल रही थी। यह वकील अचानक अपनी जगह पर खड़ा हुआ और “सनातन का अपमान नहीं सहेंगे” का नारा लगाने लगा। धार्मिक और राजनीतिक रूप से आवेशित इस नारे के तुरंत बाद, उसने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) गवई की ओर जूता फेंकने की कोशिश की।
गनीमत यह रही कि अदालत कक्ष में मौजूद सुरक्षाकर्मियों ने अत्यधिक तत्परता दिखाई और वकील को अपने नापाक मंसूबे में कामयाब होने से पहले ही वक़्त रहते रोक लिया। यदि सुरक्षाकर्मियों ने एक पल की भी देरी की होती, तो यह घटना भारतीय न्यायिक इतिहास के सबसे काले और शर्मनाक अध्यायों में से एक बन जाती।
सीजेआई गवई का अद्वितीय संयम: गरिमा और निडरता का प्रदर्शन
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान सबसे अधिक सराहनीय और न्यायिक गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने वाला पहलू स्वयं मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई का आचरण था। “बार एंड बेंच” की रिपोर्ट के अनुसार, एक घोर अपमान और शारीरिक हमले के प्रयास के बावजूद, मुख्य न्यायाधीश इस पूरी घटना के दौरान पूरी तरह शांत और स्थिर बैठे रहे।
उन्होंने किसी भी तरह की घबराहट, क्रोध, या भावनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, जो उनकी पेशेवर निडरता को दर्शाती है। इसके बजाय, उन्होंने त्वरित रूप से अदालत की कार्यवाही को जारी रखने का निर्देश दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस तरह की अराजक घटनाओं से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता और यह किसी भी कीमत पर न्यायिक प्रक्रिया को बाधित नहीं कर सकती।
मुख्य न्यायाधीश की यह प्रतिक्रिया न्यायिक संयम का सर्वोच्च उदाहरण है। उनके इस आचरण ने न केवल न्यायिक अधिकारियों की गरिमा को बचाया, बल्कि यह भी संदेश दिया कि अदालतें बल प्रयोग, धमकी या भावनात्मक ब्लैकमेल के सामने झुकने वाली नहीं हैं। यह दृढ़ता न्यायिक स्वतंत्रता का एक मजबूत स्तंभ है।
सुरक्षा व्यवस्था की चूक: सुप्रीम कोर्ट की अभेद्यता पर प्रश्न
यह गंभीर घटना देश की सर्वोच्च अदालत की सुरक्षा व्यवस्था पर कई गंभीर सवाल खड़े करती है, जिनकी संख्या पाँच से अधिक है।
- प्रोटोकॉल का उल्लंघन: यह समझा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट में प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति, भले ही वह एक वकील हो, के लिए कड़े सुरक्षा प्रोटोकॉल और जांच अनिवार्य है। फिर भी, एक ऐसी वस्तु (जूता) जिसे संभावित हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, अदालत के हॉल तक कैसे पहुंची?
- न्यायाधीशों की सुरक्षा: मुख्य न्यायाधीश की पीठ के आसपास की तत्काल सुरक्षा घेरे में स्पष्ट रूप से कमी दिखाई दी। इस घटना ने एक बार फिर न्यायिक अधिकारियों की व्यक्तिगत सुरक्षा की ज़रूरत को रेखांकित किया है, विशेष रूप से उन मामलों में जो राजनीतिक या धार्मिक रूप से अत्यधिक आवेशपूर्ण हो चुके हैं।
- वकीलों की जांच का मुद्दा: क्या वकीलों को पहचान पत्र दिखाने के आधार पर सुरक्षा जांच से छूट मिलनी चाहिए? इस घटना के बाद, प्रशासन को वकीलों के प्रवेश और उनके सामान की जांच पर पुनर्विचार करना होगा।
धार्मिक नारा और न्यायिक अवमानना की गंभीरता
वकील द्वारा लगाए गए “सनातन का अपमान नहीं सहेंगे” नारे ने इस घटना को एक विशिष्ट राजनीतिक और धार्मिक संदर्भ दिया है, जिससे इसके कानूनी निहितार्थ और भी गहरे हो जाते हैं।
- न्यायिक प्रणाली पर हमला: यह कृत्य केवल एक व्यक्ति पर हमला नहीं है, बल्कि यह न्यायिक अवमानना (Contempt of Court) की चरम सीमा है। अदालत के भीतर इस तरह के नारे लगाना, और मुख्य न्यायाधीश पर हमला करने का प्रयास करना, न्यायिक प्रक्रिया में लोगों के विश्वास को कम करने का एक सुनियोजित प्रयास माना जा सकता है।
- अदालती अवमानना कानून: वकील पर आपराधिक अवमानना के तहत मुकदमा चलेगा, जिसमें अधिकतम छह महीने तक का साधारण कारावास हो सकता है। इसके साथ ही, उस पर हमले के प्रयास के तहत भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) के तहत भी आपराधिक आरोप लगेंगे।
- अभिव्यक्ति की सीमाएँ: लोकतंत्र में विरोध का अधिकार हर नागरिक का मौलिक अधिकार है, लेकिन यह अधिकार अदालतों की गरिमा को ठेस पहुँचाने या शारीरिक हिंसा का सहारा लेने की अनुमति कभी नहीं देता। वकील का कृत्य विरोध नहीं, बल्कि कानून का उल्लंघन है।
कानूनी बिरादरी और बार काउंसिल की कठोर भूमिका
इस मामले में बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI), जो वकीलों के आचरण को नियंत्रित करने वाली शीर्ष संस्था है, की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
- लाइसेंस की समाप्ति: BCI को तुरंत इस वकील का वकालत का लाइसेंस रद्द करने की कार्रवाई करनी चाहिए। एक वकील को अदालत की गरिमा बनाए रखने की शपथ लेनी होती है, और इस तरह का कृत्य पेशेवर कदाचार की सभी सीमाओं को पार करता है। यह आवश्यक है कि कानूनी बिरादरी ऐसे आचरण को सामूहिक रूप से निंदित करे।
- आचरण संहिता: BCI को अपने सदस्यों के लिए आचरण संहिता की समीक्षा करनी चाहिए और वकीलों को स्पष्ट रूप से चेतावनी देनी चाहिए कि अदालत का कक्ष राजनीतिक या धार्मिक विरोध का मंच नहीं है।
- मनोवैज्ञानिक जांच की आवश्यकता: वकालत का पेशा अत्यधिक दबाव और तनाव वाला होता है। बार काउंसिल को अपने सदस्यों की मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्थिरता पर भी ध्यान देने के लिए एक तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है, ताकि तनावपूर्ण स्थितियों में भी वे पेशेवर नैतिकता बनाए रखें।
आगे की सुरक्षा रणनीति और न्यायिक स्वतंत्रता का संरक्षण
यह घटना एक स्पष्ट संकेत है कि न्यायिक स्वतंत्रता (Judicial Independence) को अब नई और अप्रत्याशित चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार रहना होगा।
- विशेष सुरक्षा दस्ता: सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों के लिए एक विशेष और उच्च-प्रशिक्षित सुरक्षा दस्ता (Specialized Security Wing) गठित करने पर विचार किया जाना चाहिए। यह दस्ता अदालत कक्ष के अंदर और बाहर दोनों जगह संभावित खतरों से निपटने में सक्षम होना चाहिए।
- प्रौद्योगिकी का उपयोग: प्रवेश द्वारों पर अत्याधुनिक स्कैनिंग और जांच तकनीक का उपयोग किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कोई भी आपत्तिजनक वस्तु अदालत में प्रवेश न करे।
- न्यायिक स्वायत्तता: न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा केवल भौतिक सुरक्षा से नहीं होती, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होता है कि किसी भी तरह के राजनीतिक या बाहरी दबाव के सामने न्यायाधीशों को पूरी तरह से मुक्त रखा जाए। सीजेआई गवई की प्रतिक्रिया ने दिखाया कि मानसिक दृढ़ता ही न्यायिक स्वतंत्रता की सबसे बड़ी ढाल है।
हड़कंप के बाद न्याय का मार्ग और राष्ट्र का संकल्प
सुप्रीम कोर्ट में हुई यह घिनौनी घटना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक गहन चेतावनी है। यह दिखाता है कि कानून का शासन बनाए रखने वाली संस्था पर भी अब राजनीतिक अतिवाद हावी होने की कोशिश कर रहा है।
छह अक्टूबर दो हज़ार पच्चीस की यह घटना न्यायपालिका की सुरक्षा को लेकर एक अभूतपूर्व समीक्षा की मांग करती है। सीजेआई बीआर गवई द्वारा दिखाया गया अदम्य साहस और अद्वितीय संयम इस बात का प्रमाण है कि न्यायिक प्रक्रिया किसी भी व्यक्तिगत हमले या बाहरी खतरे के सामने कभी नहीं रुकेगी।
देश के न्यायिक बिरादरी और नागरिक समाज को एकजुट होकर इस तरह के कृत्यों की कठोरतम निंदा करनी चाहिए। न्यायपालिका की पवित्रता और स्वतंत्रता को बनाए रखना केवल न्यायाधीशों का नहीं, बल्कि हर एक भारतीय नागरिक का सर्वोच्च संवैधानिक कर्तव्य है। इस कर्तव्य का पालन ही हमारे लोकतंत्र को अक्षुण्ण रखेगा।
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संपादन: ठाकुर पवन सिंह | pawansingh@tajnews.in
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