Medical Industry Exposed: धरती के भगवान या ‘सफेद कोट वाले कसाई’? भारत के अस्पतालों में चल रहा ‘मुनाफे का ऑपरेशन’; रूह कंपा देगी लक्ष्मी की दास्तां

Monday, 22 December 2025, 08:45:00 PM. Agra/New Delhi

आगरा/नई दिल्ली। क्या आप डॉक्टर के पास इलाज कराने जाते हैं, या ‘मुनाफे का शिकार’ बनने? यह सवाल कड़वा जरूर है, लेकिन भारत की वर्तमान Medical Industry की हकीकत यही है। 21 दिसंबर 2025 को वरिष्ठ पत्रकार बृज खंडेलवाल द्वारा उजागर की गई एक रिपोर्ट ने देश के हेल्थकेयर सिस्टम की पोल खोलकर रख दी है।

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत का मेडिकल सिस्टम एक खतरनाक बीमारी से जूझ रहा है—और वह बीमारी है ‘लालच’। आंध्र प्रदेश से लेकर गुजरात तक, अस्पतालों में मरीजों को ठीक करने के बजाय उन्हें “दुधारू गाय” समझा जा रहा है। 2025 में हुए खुलासे बताते हैं कि कैसे आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं में सेंधमारी की जा रही है और स्वस्थ लोगों की बेवजह सर्जरी कर दी जा रही है।

डॉक्टरों को भी इलाज की है ज़रूरत: भारत की मेडिकल इंडस्ट्री में कुछ तो सड़ रहा है


बृज खंडेलवाल


हाल ही में रिटायर हुए एक हेल्थ ऑफिसर, आंध्र प्रदेश की कोई लक्ष्मी की दर्दभरी दास्तां सुना रहे थे जो एक “काल्पनिक वास्तविकता” लगती है।
लक्ष्मी एक छोटे से गाँव से आती है। उम्र तीस के आसपास, माँ है, दिहाड़ी पर काम करती है। पेट में तेज़ दर्द और ज़्यादा ख़ून बहने की शिकायत उसे एक निजी अस्पताल तक ले गई। डर के मारे उसने डॉक्टर पर भरोसा कर लिया, मरता क्या न करता। “डॉक्टर बड़े इत्मिनान से बात करता है, मुश्किल मेडिकल शब्दों का इस्तेमाल करता है और कहता है कि “छोटी सी सर्जरी” से सब ठीक हो जाएगा। इलाज सरकार की बीमा योजना में कवर है, इसलिए पैसों की चिंता भी नहीं करनी।”
लक्ष्मी कई फॉर्म्स पर जहाँ बताया जाता है, वहीं दस्तख़त कर देती है।
ऑपरेशन के बाद जब उसे होश आता है, तो वह बेहद कमज़ोर और उलझन में होती है। बाद में पता चलता है कि उसकी बच्चेदानी निकाल दी गई है। डॉक्टर कहता है, “ज़रूरी था, नहीं तो कैंसर हो सकता था।” किसी ने यह नहीं बताया कि और भी रास्ते थे, दवाइयाँ, हल्का इलाज, या कुछ वक़्त तक निगरानी। दूसरे डॉक्टर से राय लेने पर सच्चाई सामने आती है: सर्जरी की तत्काल ज़रूरत नहीं थी।
अस्पताल बीमा कंपनी से मोटा बिल वसूल लेता है। डॉक्टर आगे बढ़ जाता है। लक्ष्मी घर लौटती है एक बदले हुए जिस्म के साथ। जल्दी मेनोपॉज़, हड्डियों की कमज़ोरी, थकान, सब उसके हिस्से आ जाते हैं। काम करना मुश्किल हो जाता है। सही फ़ॉलो-अप इलाज नहीं मिलता। उसके सवाल, उसका अफ़सोस, सब अनसुना रह जाता है।
लक्ष्मी जैसी कहानियाँ इत्तेफ़ाक़ नहीं हैं। ये चेतावनी हैं।

बृज खंडेलवाल


भारत के हेल्थकेयर सिस्टम में एक परेशान करने वाला चलन उभर रहा है, जहाँ मुनाफ़ा अक्सर मरीज़ की भलाई से ऊपर रखा जाता है। जहाँ इलाज की उम्मीद होती है, वहाँ धोखा मिलता है। गरीबों की मदद के लिए बनी योजनाएँ भी शोषण का ज़रिया बन रही हैं।
2025 में भी ज़रूरत से ज़्यादा सर्जरी का मसला बना हुआ है। आंध्र प्रदेश में ऑडिट से सामने आया कि निजी अस्पतालों में सी-सेक्शन की दर 56 प्रतिशत तक पहुँच गई। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की तय सीमा, 10 से 15 प्रतिशत, से बहुत ज़्यादा है। कई मामलों में सर्जरी ज़रूरी नहीं थी, बस इसलिए की गई क्योंकि बीमा योजना में उसका ज़्यादा पैसा मिलना था। सौ से ज़्यादा अस्पतालों पर जाँच बैठी।
दिल के इलाज में भी यही कहानी है। गुजरात में एक अस्पताल और कार्डियोलॉजिस्ट को निलंबित किया गया, जब दर्जनों बेवजह एंजियोप्लास्टी के मामले सामने आए। रिपोर्ट्स से छेड़छाड़ कर यह दिखाया गया कि दिल ख़तरे में है, जबकि कई मरीज़ों को इसकी ज़रूरत नहीं थी।
बच्चेदानी निकालने के मामलों ने तो और भी चिंता बढ़ाई है। गाँव की जवान औरतों को मामूली समस्याओं पर बड़ी सर्जरी के लिए तैयार कर लिया जाता है। न पूरी जानकारी दी जाती है, न सहमति सही मायनों में ली जाती है। वजह अक्सर वही, मुनाफा।
दवाइयों की कंपनियाँ भी इस गड़बड़ी को बढ़ाती हैं। नियम होने के बावजूद डॉक्टरों को तोहफ़े, विदेश यात्राएँ और दूसरे लालच दिए जाते हैं। 2024 के आखिर में एक बड़ी कंपनी पर सवाल उठे, जब करोड़ों रुपये की विदेश यात्राओं का खुलासा हुआ। क़ानून है, लेकिन अमल ढीला है।
गरीबों के लिए बनी आयुष्मान भारत योजना भी धोखाधड़ी का शिकार बनी। 2025 तक 1,100 से ज़्यादा अस्पताल इस योजना से बाहर किए गए। फ़र्ज़ी भर्ती, बेवजह इलाज और फुलाए गए बिलों के लिए 122 करोड़ रुपये से ज़्यादा का जुर्माना लगा। ये आँकड़े सिर्फ़ भ्रष्टाचार नहीं, ज़मीर के पतन का दुखभरा संकेत हैं।
सबसे डरावनी सच्चाई अंग तस्करी की है। 2025 में एक गिरोह का पर्दाफ़ाश हुआ जो ग़रीब और मजबूर लोगों को बहला-फुसला कर विदेश भेजता था, जहाँ अवैध किडनी ट्रांसप्लांट होते थे। वादे किए जाते थे, मगर लौटने पर सिर्फ़ ज़ख़्म और धोखा हाथ आता था।
नियामक संस्थाएँ भी सवालों के घेरे में हैं। मेडिकल कॉलेजों की मंज़ूरी और निरीक्षण में रिश्वत के आरोपों ने भरोसे को और तोड़ दिया। जब निगरानी करने वाले ही बेईमान हों, तो सिस्टम कैसे बचे?
यह कहना ज़रूरी है कि ज़्यादातर डॉक्टर बुरे नहीं हैं। कई डॉक्टर बेहद दबाव में काम करते हैं, कम स्टाफ़, कम तनख़्वाह, कॉरपोरेट टारगेट, पढ़ाई का क़र्ज़। लेकिन जब पूरा ढांचा संख्या और कमाई को इनाम देता है, तो नैतिकता पीछे छूट जाती है।
इस सिस्टम का इलाज आसान नहीं है। सख़्त ऑडिट, पारदर्शी नियम, दोषियों को सज़ा, और सच बोलने वालों की हिफ़ाज़त ज़रूरी है। डॉक्टरों को सिर्फ़ तकनीक नहीं, इंसानियत भी सिखानी होगी। मरीज़ों को उनके हक़ आसान ज़बान में बताने होंगे। और सबसे अहम बात, पैसा यह तय न करे कि किसका ऑपरेशन होगा।
लक्ष्मी को इलाज चाहिए था, मुनाफ़े की सर्जरी नहीं। जब तक यह फ़र्क़ नहीं समझा जाएगा, तब तक डॉक्टरों को भी इलाज की ज़रूरत रहेगी, और उस भरोसे को भी, जिसके सहारे लोग आज भी अस्पतालों के दरवाज़े तक पहुँचते हैं।

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