Wednesday, 17 December 2025, 6:05:00 PM. New Delhi, India
उस रात सब कुछ आम था। सड़क पर हल्की रोशनी, पास की चाय की दुकान से उठती अदरक की महक और घर लौटती एक लड़की, जिसकी बस एक ही ख्वाहिश थी—कोई उसे उसके हाल पर छोड़ दे।
पीछे से क़दमों की आहट आई। कुछ सेकेंड। एक चीख। फिर सन्नाटा।
चेहरे पर तेज़ाब जैसा कुछ फेंका गया, इतनी तेज़ी से कि ज़िंदगी फौरन दो हिस्सों में बँट गई—हमले से पहले और हमले के बाद।
यह कोई कहानी नहीं, आज के भारत की हक़ीक़त है।

औरत कब सुरक्षित होगी दरिंदों से?
राजमहलों से गलियों तक: जब ‘इश्क़’ इंतकाम बन जाए!!
बृज खंडेलवाल
उस रात सब कुछ आम था। सड़क पर हल्की रौशनी, पास की चाय की दुकान से उठती अदरक की महक, और घर लौटती एक लड़की, जिसकी बस एक ही ख्वाहिश थी , कोई उसे उसके हाल पर छोड़ दे। पीछे से क़दमों की आहट आई। कुछ सेकेंड। एक चीख। फिर सन्नाटा। चेहरे पर तेज़ाब जैसा कुछ फेंका गया, इतनी तेज़ी से कि ज़िंदगी फौरन दो हिस्सों में बँट गई, हमले से पहले और हमले के बाद।
यह कोई कहानी नहीं, आज के भारत की हक़ीकत है।
भारत में औरतों के ख़िलाफ़ हिंसा का साया अब क़िलों, राजदरबारों और युद्धभूमियों से उतरकर स्कूलों, अस्पतालों, गलियों और घरों तक फैल गया है। फर्क बस इतना है कि पहले ज़ुल्म सत्ता और तलवार के दम पर होता था, आज यह “ठुकराए हुए इश्क़”, “आहत मर्दानगी” और सस्ते तेज़ाब के भरोसे अंजाम दिया जा रहा है।

हमारे विकसित होते समाज की जटिल बुनावट में हाल के यौन अपराध और एसिड हमले, क्रूरता के एक ऐसे नक्शे में बदल गए हैं जो अभिजात वर्ग के विशेषाधिकार से खिसककर रोज़मर्रा की दहशत बन चुका है। 2024 के कोलकाता आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज की रेप–मर्डर जैसी घटनाओं में, जहाँ एक सिविक वॉलंटियर ने कार्यस्थल के भरोसे का बेरहमी से दुरुपयोग कर एक डॉक्टर के साथ बर्बरता की, या बदलापुर के स्कूल में छोटी बच्चियों पर सफ़ाई कर्मचारी द्वारा हमला , आगरा में एक रिसर्च स्कॉलर की लेब में हत्या, अवसरवादी क्रूरता का एक नया पैटर्न देखने में आ रहा है।
यही रुझान एसिड हमलों में भी साफ़ दिखता है, जो अधिकतर ठुकराए गए प्रेमियों, पतियों या परिचितों द्वारा अंजाम दिए जाते हैं , तीव्र बदले की उस मानसिकता को दिखाते हुए, जिसमें औरत के “ना” को माफ़ नहीं किया जाता। 2023 में देश में 207 एसिड हमले दर्ज हुए, जिनमें से अकेले पश्चिम बंगाल में 57 मामले थे। उत्तर प्रदेश, गुजरात और कई दूसरे राज्यों में भी ये घटनाएँ अब असामान्य ख़बर नहीं रहीं। घरेलू विवादों में पति द्वारा जबरन तेज़ाब पिलाने से लेकर आशिक़ों द्वारा चेहरा बिगाड़ देने तक, हिंसा की ये कहानियाँ हमारे समय की क्रूर डायरियाँ हैं। आज प्रेम प्रस्ताव ठुकराना किसी लड़की के लिए “सज़ा” बन जाता है। औरतों को न कहने का अधिकार नहीं है। कहीं पति ने झगड़े में तेज़ाब पिला दिया, कहीं आशिक़ ने “सुंदरता मिटाने” की कसम खा ली। यह सिर्फ़ अपराध नहीं, इंसानी गिरावट की इंतिहा है।

इतिहास के पन्ने पलटें, तो तस्वीरें बदलती हैं, माजरा नहीं। प्राचीन और मध्यकालीन भारत में औरतें युद्ध की “लूट” मानी जाती थीं। दुश्मन को नीचा दिखाने के लिए उनकी इज़्ज़त कुचली जाती थी। सत्ता के खिलाफ विद्रोह हो या सामंती संघर्ष , निशाना अक्सर स्त्रियाँ ही बनती रहीं। राजाओं और सामंतों के लिए यह ताक़त दिखाने का सुविधाजनक तरीक़ा था।
औपनिवेशिक क़ानूनों ने भी “क्राइम ऑफ़ पैशन” का जुमला गढ़कर कई हत्याओं के लिए नरम सज़ाओं का रास्ता खोला, मानो औरत की जान से ज़्यादा मर्द का ग़ुस्सा अहम हो।
लेकिन आज?
आज न कोई राजा है, न कोई युद्ध मैदान। आज ज़ुल्म करने वाला “आम आदमी” है , पड़ोसी, सहकर्मी, प्रेमी, पति। यह हिंसा का एक खौफ़नाक लोकतंत्रीकरण है। तेज़ाब अब हथियार है, क्योंकि वह सस्ता है, आसानी से मिल जाता है और उम्र भर का दाग दे जाता है , शरीर पर भी, ज़िंदगी पर भी।
पहले औरत पर हमला दुश्मन कबीले को हराने के लिए होता था। आज हमला इसलिए होता है, क्योंकि औरत ने “ना” कहने की हिम्मत की।
यह बदलाव क्यों आया?
एक वजह है झूठी मर्दानगी, जो बराबरी को अपमान समझती है। आर्थिक और सामाजिक बदलावों ने औरतों को आत्मनिर्भर बनाया है; वे अपने फ़ैसले खुद ले रही हैं, शहरों से गाँवों तक फ़ासले घट रहे हैं। लेकिन पितृसत्ता का ज़ेहन अभी भी वहीं अटका है। नतीजा यह कि इंकार को बेइज़्ज़ती मान लिया जाता है और बदले का हक़ समझ लिया जाता है।
दूसरी वजह है क़ानून का ढीला अमल। तेज़ाब बिक्री पर रोक के बावजूद यह आराम से मिल जाता है। जिलों के केमिस्ट और केमिकल दुकानदार बिना पूछताछ बोतल थमा देते हैं। मुक़दमे सालों तक रेंगते हैं। पीड़िता को इंसाफ़ से पहले ताने और सवाल मिलते हैं, अपराधी को सज़ा से पहले जमानत और हौसला।
डिजिटल दौर ने ज़ुल्म को और चालाक बना दिया है। तेज़ाब से चेहरा बिगाड़ना हो या डीपफेक से इज़्ज़त, मक़सद एक ही है , औरत को सार्वजनिक तौर पर तोड़ देना। यह हिंसा की नई नस्ल है, जहाँ निशाना सिर्फ़ शरीर नहीं, पहचान भी है। तस्वीर, आवाज़, सोशल मीडिया प्रोफाइल , सब युद्धभूमि हैं।
सबसे डरावनी बात ये है कि अब कोई जगह सचमुच सुरक्षित नहीं दिखती। स्कूल, घर, सड़क, अस्पताल , हर जगह खतरे की हल्की-सी, लेकिन लगातार गूँज मौजूद है। उम्र भी मायने नहीं रखती। बच्ची हो या बुज़ुर्ग, विवाहित हो या अकेली , हिंसा का यह साया सबको अपनी ज़द में ले रहा है।
यह हालात एक कड़वा सच बयान करते हैं: हमने बराबरी की भाषा तो सीख ली, लेकिन इंसानियत का सबक अब भी अधूरा है। अब समाधान सिर्फ़ मोमबत्ती जुलूसों या सोशल मीडिया के तात्कालिक ग़ुस्से से नहीं आएगा।
ज़रूरत है : बचपन से सहमति और सम्मान की तालीम की। तेज़ाब पर सख़्त, पारदर्शी और वाक़ई लागू नियंत्रण की। तेज़, संवेदनशील और भरोसा बहाल करने वाले न्याय की। और सबसे ज़रूरी, सोच की बुनियादी तब्दीली की।
वरना यह साया और गहरा होगा।
और हर उस औरत को, जो “ना” कहने की हिम्मत जुटाती है, यह डर सताता रहेगा कि कहीं उसकी ज़िंदगी भी दो हिस्सों में न बँट जाए , हमले से पहले और हमले के बाद।
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