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क्या होता अगर भारत ने 26 जनवरी, 1950 को अपना संविधान नहीं अपनाया होता?

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बगैर एक लिखित संविधान के क्या होती इंडिया की छवि या संरचना?
एक राष्ट्र होता या पांच सौ राजा, नबाब, और सुल्तान?
हाशिए पर जी रही जनता कभी आजादी से हकों के साथ जी पाती?
ये सारे सवाल लोगों को परेशान नहीं करते क्योंकि ७५ वर्ष की लंबी संवैधानिक यात्रा ने भारतवंशियों को कानून के शासन की आदत डाल दी है। ढाई साल का काला आपातकालीन दौर भी स्मृति से डिलीट हो चुका है

26 जनवरी, 1950 को भारत ने अपना संविधान अपनाया और खुद को एक संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया। लेकिन अगर यह ऐतिहासिक घटना कभी घटित ही नहीं होती तो क्या भारत वैसा ही होता जैसा आज है?
यह परेशान करने वाले सवाल विश्वविद्यालय के छात्रों से पूछा गया तो दो एक को छोड़कर अधिकांश का मानना था कि संविधान सभा के दूरदर्शी कार्य और बाबा साहब डॉ. बी.आर. अंबेडकर के मार्गदर्शन ने राष्ट्र को एकजुट करने और इसकी प्रगति की नींव रखने में अमूल्य भूमिका निभाई।
राजनीति शास्त्र पढ़ने वाले स्टूडेंट्स ने स्पष्ट तौर पर कहा कि एक लिखित संविधान के बिना, भारत का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य पूरी तरह से अलग होता। संविधान ने भारत को संघीय लोकतंत्र का रूप दिया। इसके अभाव में, देश में राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त रहती, और राज्यों और क्षेत्रों के बीच संघर्ष और अलगाववाद की भावनाएँ बढ़ सकती थीं। स्थायी सरकारें शायद ही बन पातीं, और सत्ता के लिए लगातार संघर्ष होता रहता।
मुंबई में पढ़ रहीं अदिति ने जोर देकर कहा कि संविधान ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया और सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया। इसके बिना, जातिवाद, धार्मिक असहिष्णुता और सामाजिक असमानता की समस्याएँ और गहरी हो जातीं। महिलाओं, दलितों और आदिवासियों का शोषण होता रहता, और उनके पास कोई कानूनी सुरक्षा नहीं होती।”
सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर ने कहा “संविधान ने भारत के आर्थिक विकास के लिए एक ठोस नीतिगत ढांचा प्रदान किया। इसके बिना, आर्थिक असमानता बढ़ती, और गरीबी और बेरोजगारी गहरा जातीं।”
युवा उद्यमी जगन का विचार था कि विदेशी निवेशकों के लिए भारत एक आकर्षक गंतव्य नहीं होता, और देश का आर्थिक विकास धीमा होता। कानून के शासन के अभाव में, मनमाने ढंग से कानून बनते और लागू होते।”
एक लिखित संविधान के बिना, भारत को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में एक अस्थिर और अप्रत्याशित देश के रूप में देखा जाता। अन्य देशों के साथ हमारे संबंध तनावपूर्ण होते, और हम वैश्विक मंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में असमर्थ होते। संविधान ने भारत की विविधता—भाषा, धर्म, संस्कृति और क्षेत्रीय भिन्नताओं—को एकजुट रखने में मदद की। इसके बिना, राष्ट्रीय एकता बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होती।
बेंगलुरु की छात्रा आशिता ने कहा, “अगर भारत ने 26 जनवरी, 1950 को अपना लिखित संविधान नहीं अपनाया होता, तो देश की वर्तमान स्थिति कई मामलों में बहुत अलग होती। कानून और सिद्धांतों की स्पष्टता के अभाव में, विधायी और न्यायिक निर्णयों में अनिश्चितता रहती। मौलिक अधिकारों के बिना, अधिकारों का उल्लंघन अधिक सामान्य होता और नागरिकों की स्वतंत्रता सीमित रहती।”
मैसूर की माही हीदर ने कहा, “संविधान ने भारत को संघीय और लोकतांत्रिक सरकार की दिशा में स्थापित किया। इसके बिना, राजनीतिक व्यवस्था अधिक अस्थिर हो सकती थी, और राजा-रानी या अधिनायकवादी शासन की वापसी का खतरा होता। सामाजिक न्याय, समानता और समावेशिता के सिद्धांतों के बिना, असमानता और जातिवाद की समस्याएँ बढ़ सकती थीं।”
राजनीतिक टिप्पणीकार प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी ने कहा, “संविधान ने लोकतंत्र को मजबूत नींव दी। इसके बिना, लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ जैसे चुनाव, मौलिक अधिकार और न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती थीं। कोई भी सत्ताधारी समूह अपनी मर्जी से शासन कर सकता था।”
शैक्षिक सलाहकार मुक्ता ने कहा, “संविधान ने भारत को एक स्थिर, लोकतांत्रिक और न्यायसंगत राष्ट्र बनने में मदद की। इसके बिना, भारत शायद अराजकता, अस्थिरता और असमानता से भरा हुआ देश होता।”
संविधान भारत की एकता और अखंडता का प्रतीक है। इसने भारत को एक आधुनिक, लोकतांत्रिक और समृद्ध राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

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