

8 सितंबर 2025
वाशिंगटन की राजनीतिक हवाएं एक बार फिर अप्रत्याशित रूप से बदल गई हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, जो भारत को अपना विश्वसनीय साझेदार बताने में पीछे नहीं हटते थे, ने अचानक भारतीय आयातों पर 50% टैरिफ लगाने की घोषणा कर दी और भारत की अर्थव्यवस्था को “डेड इकॉनमी” तक कह डाला। यह कदम ऐसे समय में उठाया गया जब भारत की रूस और चीन के साथ बढ़ती नजदीकी से अमेरिका में बैचेनी बढ़ रही थी। ऐसा लग रहा था कि दोनों देशों के रिश्ते टूटने के कगार पर हैं। लेकिन महज कुछ ही घंटों के भीतर, ट्रम्प ने अपना रुख पलटते हुए कहा कि भारत-अमेरिका संबंध “खास” हैं और “चिंता की कोई बात नहीं है।” यह नाटकीय मोड़ सवाल खड़ा करता है—क्या यह व्यापार युद्ध की समाप्ति है या अंतरराष्ट्रीय राजनीति की कोई नई चाल? पूरी दुनिया की नजरें इस घटनाक्रम पर टिकी हैं।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ऐसे नाटकीय मोड़ कोई नई बात नहीं है, जहां रातों-रात दोस्ती और दुश्मनी के समीकरण बदल जाते हैं। ट्रम्प की यह रणनीति, जिसे “यू-टर्न पॉलिटिक्स” का नाम दिया जा सकता है, उनकी पहचान बन चुकी है। 5 सितंबर को उन्होंने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘ट्रुथ सोशल’ पर एक पोस्ट लिखी जिसमें कहा गया कि अमेरिका ने “भारत और रूस को चीन के हवाले कर दिया है।” यह बयान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चौंकाने वाला था। लेकिन हैरानी की बात यह रही कि कुछ ही घंटों बाद, ट्रम्प ने व्हाइट हाउस से एक औपचारिक बयान जारी कर कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक “महान नेता” हैं और भारत के साथ अमेरिका की दोस्ती “अटूट” है। इसके जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने भी सोशल मीडिया पर शांत और संयत रुख अपनाते हुए कहा कि भारत-अमेरिका साझेदारी “गहरी और दूरगामी” है।
ट्रम्प का यह अचानक आक्रमण और फिर पीछे हटना केवल एक दबाव बनाने की रणनीति थी। टैरिफ और आक्रामक बयानबाजी के जरिए उन्होंने भारत पर दबाव बनाने की कोशिश की, लेकिन साथ ही वह यह भी जानते थे कि भारत को पूरी तरह से नाराज करना अमेरिका की रणनीतिक भूल होगी। अगर भारत वास्तव में रूस और चीन के पूरी तरह करीब चला गया, तो एशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की स्थिति कमजोर पड़ सकती है। इसलिए, ट्रम्प ने जल्दी से अपना रुख बदलते हुए निजी संबंधों और पिछले अनुभवों—जैसे अहमदाबाद के ‘नमस्ते ट्रम्प’ कार्यक्रम—को याद दिलाया। वास्तविकता यह है कि भारत-अमेरिका संबंधों को केवल व्यापारिक घाटे या टैरिफ के नजरिए से नहीं देखा जा सकता। चीन के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर, भारत अमेरिका के लिए एक अनिवार्य रणनीतिक साझेदार बन चुका है।
भारत-अमेरिका संबंध आज कई स्तरों पर फैले हुए हैं और केवल व्यापार तक सीमित नहीं हैं: क्वाड और रणनीतिक साझेदारी: भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया से बना क्वाड समूह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता सुनिश्चित करने का एक प्रमुख माध्यम है। इसके बिना क्षेत्र में चीन का दबदबा और बढ़ सकता है। सुरक्षा और रक्षा सहयोग: मालाबार नौसैनिक अभ्यास, रक्षा उपकरणों की खरीद, और आतंकवाद रोधी intelligence साझाकरण जैसे मोर्चों पर दोनों देशों का सहयोग लगातार गहरा रहा है। अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद क्षेत्रीय सुरक्षा में भारत की भूमिका और महत्वपूर्ण हो गई है। प्रौद्योगिकी और नवाचार: iCET (India-U.S. Initiative on Critical and Emerging Technology) जैसे कार्यक्रमों के तहत Artificial Intelligence, सेमीकंडक्टर, क्वांटम कंप्यूटिंग, और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग बढ़ रहा है। इसका स्पष्ट लक्ष्य चीन के तकनीकी वर्चस्व को चुनौती देना है। जलवायु परिवर्तन और स्वच्छ ऊर्जा: “US-India Clean Energy Agenda 2030” के तहत दोनों देश कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने, हरित ऊर्जा को बढ़ावा देने और टिकाऊ विकास के लिए मिलकर काम कर रहे हैं।
ट्रम्प का यू-टर्न इस बात का प्रमाण है कि भारत-अमेरिका संबंध अब इतने परिपक्व और मजबूत हो चुके हैं कि अल्पकालिक तनाव या राजनीतिक बयानबाजी उन्हें आसानी से नहीं तोड़ सकती। टैरिफ को लेकर विवाद हो या कूटनीतिक उठा-पटक, दोनों देशों के बीच का रिश्ता अब एक रणनीतिक आवश्यकता बन चुका है। जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, यह साझेदारी केवल आपसी फायदे तक सीमित नहीं है, बल्कि लोकतंत्र और वैश्विक शांति के लिए एक संदेश भी है।
हालांकि, अमेरिका के भीतर ही इस नीति को लेकर मतभेद साफ दिखाई दे रहे हैं। जनता और राजनीतिक विश्लेषकों में बंटवारा है, पूर्व खुफिया अधिकारी हैरान हैं, और यूरोप, जापान 及ऑस्ट्रेलिया जैसे सहयोगी देश भी चिंतित हैं। भारत के साथ अनावश्यक टकराव में अमेरिका न केवल एक विश्वसनीय साझेदारी को खतरे में डाल रहा है बल्कि अपनी लोकतांत्रिक छवि पर बट्टा लगा रहा है। भारत, इस बीच, अपनी “सॉफ्ट पावर” और वैश्विक कद में लगातार बढ़त हासिल कर रहा है। यही हकीकत है—भारत-अमेरिका रिश्ते अब यू-टर्न पॉलिटिक्स से नहीं, बल्कि पारस्परिक जरूरतों से तय होंगे।