
राजनैतिक व्यंग्य समागम
- ये घुटने झुकने के लिए ही बने हैं : विष्णु नागर
तो भाइयों-बहनों, जो यह समझते थे कि मोहन भागवत संघ प्रमुख के नाते इतने ताकतवर हैं कि नरेंद्र मोदी को उनके 75 वें जन्मदिन पर पद से हटने के लिए मजबूर कर देंगे, उन्हें ग़लत साबित होना था और वे ग़लत सिद्ध हो गए। भागवत जी विद्वान तो नहीं हैं, मगर यह कहां लिखा है कि व्याख्यान केवल विद्वान ही दे सकते हैं? जो ‘बौद्धिक’ दे सकता है, वह व्याख्यान भी दे सकता है! संघ के लिए दोनों एक हैं। तो उन्होंने इधर तीन दिवसीय व्याख्यान दिल्ली में दिए! उन्हें पता है कि वे जो कुछ भी अटरम-शटरम बोलेंगे, मोदी राज में सारे टीवी और अखबार वाले झख मारकर उसे श्रद्धापूर्वक प्रसारित-प्रचारित करेंगे। व्याख्यान के अंतिम दिन भागवत जी ने सवालों के जवाब देकर यह संदेह भी दूर कर दिया कि संघ में दम है। बता दिया कि वह नरेंद्र मोदी के सामने हथियार डाल चुका है। उन्होंने कहा कि पहले मैंने जो भी कहा हो, उसे भूल जाओ। समझो कि वह एक मज़ाक़ था। सच यह है कि न मैं अपने 75 वें जन्मदिन पर रिटायर होने वाला हूं और न कोई और यानी नरेन्द्र मोदी रिटायर होकर उस मार्गदर्शक मंडल में जाने वाले हैं, जो होकर भी नहीं है और नहीं होकर भी है, क्योंकि उसके आडवानी और जोशी जैसे नेता आज भी सदस्य हैं !
दम ही नहीं है नरेन्द्र मोदी के सामने खड़े होने का, तो फिर अपना सौ साला जश्न किसलिए मना रहे हो? ये क्या हथियार डालने के सौ सालों का उत्सव मन रहा है? जब देश का जन-जन आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, तब संघ अंग्रेजों की गोद में बैठा हुआ था। आजादी की लड़ाई के विरोध में था। अंग्रेज़ों के सामने घुटने टेके हुए था। जब आज़ादी आई और महात्मा गांधी की हत्या में संघ का नाम आया और सरदार पटेल ने प्रतिबंध लगा दिया, तो पटेल और नेहरू के सामने घुटने टेक दिए। बचा लो किसी तरह हमें। हम आपकी हर बात मानेंगे। इस तरह प्रतिबंध हटवाया। फिर इंदिरा गांधी के सामने आपातकाल में हथियार डाल दिए और आपातकाल का समर्थन किया। अब अपने ही स्वयंसेवक के आगे झुके हुए हैं।
अपने संगठन और अपने स्वयंसेवकों का भरोसा होता, दम होता, तो अपने जन्मदिन पर पद से हटकर मोदी जी के सामने भागवत जी मुश्किल खड़ी कर सकते थे। मगर माननीय ने इतना उपकृत किया है कि दम ही नहीं बचा है। मोदी को हटवाने का दम तो है ही नहीं, इतना भी दम नहीं है कि भाजपा का नया अध्यक्ष अपने खास आदमी को बनवा सकें। संघ के किसी अपने को मोदी इस पद पर बैठा हुआ देखना नहीं चाहते और इनमें इतना दम नहीं है कि चुनौती देकर कह सकें कि तुमने बहुत मनमानी कर ली, अब अध्यक्ष तो वही होगा, जिसे हम बनाएंगे। संघ कहता है, इसे अध्यक्ष बनाओ, तो मोदी जी कहते हैं, नहीं, इसे तो बिलकुल भी नहीं बनाएंगे। संघ कहता है कि अच्छा उसे छोड़ो, इसे बना दो। मोदी जी कहते हैं, इसे क्यों बनाएं ? इसे भी नहीं बनाएंगे। संघ जिसकी भी सिफारिश करता है, मोदी जी उसे ठुकरा देते हैं। एक दिन मोदी जी कहेंगे कि भागवत जी आपके साथ अध्यक्ष-अध्यक्ष का खेला बहुत हो चुका। अब ये खेल खत्म करता हूं और ये रहा मेरा उम्मीदवार। जिसमें दम हो, इसे हरा कर देख ले और फिर भागवत जी घुटने टेक देंगे कि हम तो भाजपा के मामले में हस्तक्षेप नहीं करते जी!
घुटनों में दम होता, तो क्या ये नरेन्द्र मोदी को 2014 में प्रधानमंत्री पद के लिए खड़ा होने देते और उसे जिताने के लिए मैदान में कूद पड़ते? यही वह मोदी थे न, जिन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए संघ को घुटने पर ला दिया था! गुजरात में मोदी ही भाजपा थे और मोदी ही संघ। संघ वहां हवा-हवाई हो गया था!
इनमें बस हिन्दू-मुस्लिम करवाने का दम है, जिसकी प्रैक्टिस ये सौ साल से करते आ रहे हैं। दम अयोध्या, मथुरा, काशी के नाम पर हिंदू -मुस्लिम दंगा करवाने का है, जो ये एक शताब्दी से करते आ रहे हैं। और दम है जमकर झूठ बोलने का, जो ये और इनका लाड़ला स्वयंसेवक रोज बेशर्मी से बोलता है। मोदी के सहारे इनमें इतना ही दम है कि दिल्ली में 150 करोड़ की लागत से 300 कमरों का भव्य भवन बनवा सकें! हेडगेवार भवन तथा केशव कुंज पर छापा नहीं पड़े, इसे सुनिश्चित करवा सकें। इनके स्वयंसेवकों के घरों और दफ्तरों पर ईडी, सीबीआई नहीं भेजा जाए, इतना इन्होंने अपने पुराने स्वयंसेवक के जरिए पक्का करवा लिया है। हिंदू राष्ट्रवाद के नाम पर इतना लाभ लेकर संघ खुश है। आज भाजपा, संघ की छत्रछाया में नहीं, बल्कि संघ, भाजपा की छत्रछाया में पल रहा है! कैसे बोलेंगे? कैसे घुटनों पर खड़े होंगे?
इस बचे-खुचे दम का ही आनंद आज संघ उठा रहा है। दम होता, तो संघ कहता कि माननीय मोदी जी, सारी दुनिया में आपकी थू -थू हो रही है, उम्र के 75वें साल में सिद्धांत का बाना ओढ़ कर ही शहीद हो जाइए, झोला लेकर चल दीजिए। चाहें तो झोले में पूरा 10, लोक कल्याण मार्ग उठा ले जाइए, मगर कृपया बहुत हो गया, अब तो चले ही जाइए। मोदी जी, ये ट्रंप का अमेरिका आपसे संभल नहीं रहा है, भारत की बर्बाद अर्थव्यवस्था को और बर्बाद करने पर तुला है, इसलिए हट जाइए वरना आपके साथ हमारा भी बंटाधार हो जाएगा!
दम होता, तो कहते कि जगह-जगह वोट चोरी का भांडा फूट चुका है, राहुल गांधी देश का हीरो बनता जा रहा है, षड़यंत्र से उसे दबाने का समय जा चुका है, अब हट जाओ, बच जाओ। हर क्षण हर जगह चेहरा दिखाने की बीमारी से अब तो बाज आओ। अडानी के कारण तुम इतने बदनाम हो कि लोग तुम्हें अडानी का नौकर तक कहने लगे हैं, इसलिए हट जाओ। है इतना दम? सौ साल की उम्र में वैसे भी घुटने जवाब दे जाते हैं। फिर सौ साल से जिन घुटनों को झुकने की आदत पड़ चुकी है, वे अब उठ सकते भी नहीं! कल कोई और आएगा और उसने इन्हें झुकने की इजाजत दी, तो उसके सामने भी झुक जाएंगे! झुकने की जन्मजात आदत जो है।
- वो कागज नहीं दिखाएंगे! : राजेंद्र शर्मा
इसे कहते हैं, खरबूजे को देखकर खरबूजे का रंग बदलना। मोदी जी की बीए की डिग्री नहीं दिखाई जाएगी, तो स्मृति ईरानी की ग्यारहवीं-बारहवीं की मार्क शीट नहीं दिखाई जाएगी। सिर्फ नहीं दिखाई जाएगी नहीं, नहीं दिखा सकते। अब तो अदालत ने भी कह दिया है कि नहीं दिखा सकते। राष्ट्रीय हित का सवाल है। किसी ऐसे-वैसे राष्ट्रीय हित का भी नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल है। कागज नहीं दिखा सकते।
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए रिस्क मोल नहीं ले सकते। मोदी जी को देश संभाले हुए, ग्यारह साल से ज्यादा हो गए। राष्ट्र सुरक्षित है कि नहीं? क्या कहा, पहलगाम, पुलवामा, डोकलाम! हो जाती हैं, बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं भी हो जाती हैं ; पर देश तो सुरक्षित है। जितना 2014 में था, 2025 में भी करीब-करीब उतना ही है। इसीलिए, कागज नहीं दिखा सकते। रिस्क नहीं ले सकते।
क्या पता कागज दिखाने के बाद राष्ट्र असुरक्षित हो जाए। राष्ट्र न सही, मोदी जी की गद्दी ही खतरे में पड़ जाए। आखिर, गद्दी के लिए खतरा तो बाहर वालों से नहीं, देश के अंदर की पब्लिक से भी आ सकता है। जो पब्लिक ‘वोट चोर’ के जवाब में ‘गद्दी छोड़’ का नारा लगा सकती है, इसकी क्या गारंटी है कि ‘डिग्री चोर, गद्दी छोड़’ की जिद पकड़ कर नहीं बैठ जाती।
खैर, अदालत ने सारा टंटा ही खत्म कर दिया। जब कागज ही नहीं दिखाएंगे, तो डिग्री चोर के नारे कहां से आएंगे? एंटायर पॉलिटिकल साइंस की एमए की डिग्री की झलक दिखाने की गलती नहीं की होती, तो क्या अब तक एंटायर पॉलिटिकल साइंस का मजाक बन रहा होता। पढ़ा-लिखा तो किसी ने माना नहीं, एंटायर पालिटिकल साइंस की हंसी उड़ रही है, सो अलग।
खैर! खरबूजे को देखकर खरबूजे के रंग बदलने पर लौटें। जब मोदी जी, स्मृति ईरानी जी ने कागज नहीं दिखाएंगे का एलान कर दिया, तो चुनाव आयोग को भी जोश आ गया। आखिरकार, संवैधानिक संस्था है। उसके कागज की भी कोई इज्जत है। यूं ही हर किसी को नहीं दिखा सकते।
अब अदालत कागज छुपाने के अधिकार की हिफाजत करने के मूड में है, तो क्या आयोग के भी कागज नहीं दिखाने के अधिकार की रखवाली नहीं करेगी। सो एलान कर दिया – हम भी कागज नहीं दिखाएंगे। आरटीआई यानी सूचना के अधिकार के झांसे में हम नहीं आएंगे और बिहार वाले एसआईआर के कोई कागज नहीं दिखाएंगे। 2003 वाले आईआर यानी इंटेंसिव रिवीजन के कोई कागज दिखाने से तो पहले ही इंकार कर दिया था। कागज हैं ही नहीं, तो दिखाएंगे क्या? पर अब 2025 के एसआईआर के भी कागज नहीं दिखाएंगे।
पर कागज देखना चाहने वालों की ढिठाई देखिए। छह अलग-अलग आरटीआइ लगाएंगे और दस अलग-अलग तरीकों से वही कागज दिखाने की मांग करेंगे। जैसे, बताएं कि बिहार में एसआईआर का जो फैसला हुआ, उसकी फाइल कहां से चली? कब चली और कहां तक पहुंची? इस पर किसने क्या राय दी? किस से क्या मशविरा किया गया? क्या किसी ने आपत्तियां कीं? किस ने फैसला लिया? कब फैसला लिया? और भी न जाने क्या-क्या? सवाल ही सवाल।
जब से अमर्त्य सेन की आर्गुमेंटेटिव इंडिया वाली किताब आयी है, तब से इंडिया वाले कुछ ज्यादा ही सवाल पूछने लगे हैं। वह तो मोदी जी का शुक्र मनाना चाहिए कि उन्होंने आरटीआई वगैरह सब फालतू कानूनों की मुश्कें कस दी हैं और ‘‘नो डाटा’’ को बाबुुओं का पसंदीदा जवाब बना दिया है, वर्ना न जाने किस जानकारी से, किस तरह देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती।
एसआईआर की जानकारियां हाथ लग जातीं, तो क्या दूसरे देश हमारे देश के खिलाफ इन जानकारियों का इस्तेमाल नहीं कर लेते? जैसे यही गुप्त जानकारी कि मोदी जी के राज में फैसले कैसे लिए जाते हैं?
मोदी जी के चुनाव आयोग के विरोधी, चुनाव आयोग के हम कागज नहीं दिखाएंगे के एलान से, तोड़-मरोडक़र गलत अर्थ निकालने की कोशिश कर रहे हैं। विरोधी कह रहे हैं कि चुनाव आयोग के पास एसआईआर के कोई कागज ही नहीं हैं। जिस एसआईआर ने पूरे बिहार को हिला रखा है, जिस एसआईआर ने देश को चिंतित कर रखा है, चुनाव आयोग में उसकी कोई फाइल ही नहीं है। न कोई मूल प्रस्ताव है, न उस पर कोई चर्चा है, न उस पर कानून मंत्रालय या किसी और मंत्रालय से कोई परामर्श है। और तो और, चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जो यह दावा किया था कि किसी विशेष अध्ययन के आधार पर उसने एसआईआर के जरूरी होने का निर्णय लिया था, उस अध्ययन का भी कोई अता-पता नहीं है। एसआईआर के मामले में तो आयोग मेें सब हवा-हवाई ही है! पर ऐसा है नहीं। बेशक, आयोग ने कहा है कि कागज नहीं दिखाएंगे। लेकिन, कागज नहीं दिखाएंगे, का मतलब यह थोड़े ही है कि कागज ही नहीं हैं। एसआईआर की कोई फाइल ही नहीं है! मोदी जी डिग्री नहीं दिखा रहे हैं, तो इसे कोई डिग्री नहीं होने का सबूत बता सकता है क्या? डिग्री न होना और डिग्री नहीं दिखाना, दो अलग-अलग चीजें हैं। सच पूछिए, तो डिग्री नहीं होने पर नहीं दिखाना, यह तो कोई भी कर सकता है। छप्पन इंची छाती वो है, जो होने पर भी नहीं दिखाए और यह कहकर नहीं दिखाए कि नहीं दिखाते, क्या कर लोगे? दिखाना, तो होने का सबूत हो सकता है, पर नहीं दिखाना नहीं होने का सबूत हर्गिज नहीं है!
और ये विरोधी फाइल-फाइल का क्या शोर मचा रहे हैं? ये तो ऐसे दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे फाइल के इधर-उधर होने, फाइल पर टीका-टिप्पणियों वाली बहस के बिना सरकार कुछ कर ही नहीं सकती है। इस सब की ऐसी भी क्या जरूरत है, बल्कि एक तरह से देखें, तो यह सब तो टाइम ही खराब करना है। जब बिना चर्चा के फैसले ले सकते हैं, तो इस सब की जरूरत ही क्या है? कागज काले करने का क्या फायदा? और फैसले लेने की भी क्या जरूरत है, जब ऊपर से आए फैसले ही लागू करने हैं। यह पहले वाली अटकाने, भटकाने, लटकाने वाली सरकार थोड़े ही है। यह मोदी सरकार है, जो सीधे फैसले लागू करती है। यह वह सरकार है, जो चर्चा-वर्चा से नहीं, इलहाम से चलती है, फैसले लेती है। चर्चा-वर्चा से फैसला तो कोई बायोलॉजीकल भी कर लेगा। मोदी जी के नॉनबायोलाजीकल होने का ही क्या फायदा, अगर फाइल, नोटिंग, चर्चा वगैरह के पचड़ों मेें ही टैम खराब करना पड़े।
खैर! डिग्री हो तो और फाइल हो तो, वो कागज नहीं दिखाएंगे — सीएए वाली पब्लिक समझ रखा है क्या?
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)