
अब समय आ गया है कि अमेरिका का अधीनस्थ सहयोगी बनना बंद करे भारत
आलेख : प्रकाश करात, अनुवाद : संजय पराते
यह विडंबना ही है कि भारत की विदेश नीति में लंबे समय से लंबित सुधार करने के लिए मोदी सरकार को मजबूर करने के लिए डोनाल्ड ट्रम्प को धन्यवाद देना पड़ेगा। वाजपेयी सरकार से लेकर मनमोहन सिंह सरकार तक और फिर मोदी सरकार के दौरान तेज़ गति से लगभग तीन दशकों तक, संयुक्त राज्य अमेरिका का अधीनस्थ सहयोगी बनने की राह पर भारत अग्रसर रहा। यह एक रणनीतिक नीतिगत रुख़ था, जिसने एक स्वतंत्र विदेश नीति के आधार और रणनीतिक स्वायत्तता की गुंजाइश को कमज़ोर कर दिया।
हाल तक, मोदी सरकार गर्व से यह दावा करती रही थी कि उसने अमेरिका के साथ सभी बुनियादी सैन्य समझौते कर लिए हैं और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसकी भू-राजनीतिक रणनीति के साथ तालमेल बिठा लिया है। क्वाड इसी उभरते हुए गठबंधन का एक उदाहरण था। ट्रंप के राष्ट्रपति पद के पहले कार्यकाल में, भारत ने ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया था और ट्रंप द्वारा लगाए गए एकतरफा प्रतिबंधों के अनुरूप काम किया, जिससे हमें भारी नुकसान हुआ। इसके बाद वेनेजुएला से भी तेल खरीदना बंद कर दिया गया।

ट्रंप के दोबारा आगमन को भारत के लिए एक दिव्य अवसर के रूप में देखा गया, जिससे वह ट्रंप और मोदी की व्यक्तिगत मित्रता का लाभ उठाकर अमेरिका के साथ और घनिष्ठता बढ़ा सके। इसी दृष्टिकोण के कारण गाजा में इजरायल द्वारा जारी नरसंहार, जिसे ट्रंप सक्रिय रूप से समर्थन और बढ़ावा दे रहा है, पर शर्मनाक चुप्पी साधी गई। न ही भारत ने ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर अमेरिकी बमबारी की निंदा की, जो एक मित्र देश के विरुद्ध एक आक्रामक कार्रवाई थी, और जिसने परमाणु प्रसार के खतरे को और बढ़ा दिया था।
लेकिन, ट्रंप का उग्र-राष्ट्रवादी रुख और भारत को धमकाने के हथियार के रूप में टैरिफ का इस्तेमाल करने का अतिवाद, मोदी और भाजपा भी पचा पाने में असमर्थ है। न ही वे पाकिस्तान के साथ बराबरी के व्यवहार को बर्दाश्त कर सकते हैं। हकीकत यह है कि जैसे ही भारत और पाकिस्तान परमाणु हथियार संपन्न देश बने, उनके बीच कोई भी सैन्य संघर्ष अमेरिका के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाने का रास्ता खोल देता है, क्योंकि दोनों देशों के अमेरिका के साथ रणनीतिक संबंध हैं।
इस साल ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से पहले ही, राष्ट्रपति बाइडेन के नेतृत्व में मोदी सरकार को एक रणनीतिक साझेदार के रूप में उसके दायित्वों की याद दिलाने के कई मौके अमेरिका को मिले थे। जुलाई 2024 में जब मोदी रूस गए और राष्ट्रपति पुतिन से मिले, तो बाइडेन प्रशासन ने अपनी नाराज़गी का इजहार किया था। भारत में अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने चेतावनी दी थी कि अमेरिका के साथ रिश्ते को भारत हल्के में न लें और आगे कहा था : मैं जानता हूँ कि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता पसंद करता है। लेकिन, संघर्ष के समय में रणनीतिक स्वायत्तता जैसी कोई चीज़ नहीं होती। इस बात के पर्याप्त संकेत मिले हैं कि भारत अपनी रक्षा आपूर्ति के लिए रूस पर अपनी निर्भरता कम कर रहा है और साथ ही अमेरिकी हथियारों और उपकरणों की ख़रीद में काफ़ी वृद्धि कर रहा है। यह एक ऐसी माँग है, जो एक के बाद एक आने वाले अमेरिकी प्रशासनों द्वारा निरंतर की जाती रही है और अब ट्रंप के कैबिनेट मंत्रियों द्वारा ज़ोरदार ढंग से उठाई जा रही है।
दक्षिण एशिया और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी दल में शामिल होने के परिणाम, समय के साथ सामने आ रहे हैं। परिणामस्वरूप, भारत की विदेश नीति चरमरा गई है। दक्षिण एशिया में, भारत अपने पड़ोसी देशों से पहले से कहीं अधिक अलग-थलग पड़ गया है। इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने की निरर्थक कोशिश और जुनूनी पाकिस्तान-केंद्रित नीति, दोनों ही इसके कारण रहे हैं। विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण को घुसेड़ने से दुनिया में भारत की छवि और प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचा है। अब जब हिंदुत्ववादी जातीय-राष्ट्रवाद, ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (मागा) के नस्लवादी राष्ट्रवाद से टकरा रहा है, तो भारत की अमेरिकापरस्त रणनीतिक और विदेश नीति गतिरोध में हैं। मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’) +मीगा (मेक इंडिया ग्रेट अगेन) मिलकर ‘मेगा’ नहीं बनाते।
इस संदर्भ में, चीन के साथ संबंध सुधारने के लिए हाल ही में उठाए गए कदम और शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए मोदी की तियानजिन यात्रा तथा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ द्विपक्षीय बैठक सकारात्मक घटनाक्रम हैं। चीन विरोधी अंध-द्वेष को दूर करने और दोनों देशों के बीच मतभेदों को दूर करने के लिए यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
भारत में विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए चीनी निवेश और तकनीक के इस्तेमाल की अपार संभावनाएँ हैं। इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में चीनी कंपनियों के निवेश पर लगे प्रतिबंधों को हटाना ज़रूरी है। उदाहरण के लिए, 2023 में सरकार ने इलेक्ट्रिक कार और बैटरी बनाने के लिए, एक भारतीय कंपनी के साथ संयुक्त उद्यम में दिग्गज इलेक्ट्रिक वाहन निर्माता कंपनी बीवायडी द्वारा एक अरब डॉलर के निवेश को मंज़ूरी देने से इंकार कर दिया था। इस उद्यम से भारत को नवीनतम तकनीकी जानकारी और उत्पादन क्षमता हासिल करने में मदद मिलती, क्योंकि बीवायडी दुनिया की अग्रणी इलेक्ट्रिक वाहन कंपनी है। ऐसे कई अन्य क्षेत्र हैं, जहाँ चीन के साथ आर्थिक सहयोग से भारतीय उद्योग और बुनियादी ढाँचे के विकास को काफ़ी फ़ायदा होगा।
अमेरिका के नेतृत्व वाली अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था पिछले कुछ समय से पतन की ओर अग्रसर है और बहुध्रुवीयता से उसे लगातार चुनौती मिल रही है। अमेरिकापरस्त नीतियों ने, वास्तव में भारत को बढ़ते बहुध्रुवीय विश्व में खुद को मजबूत करने के अवसरों का लाभ उठाने से रोका है। ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सदस्य के रूप में, भारत ने इन मंचों को विकसित और सक्रिय करने में अपना पूरा ज़ोर नहीं लगाया है।
यह संयोग नहीं है कि ट्रंप ने ब्रिक्स के तीन संस्थापक सदस्यों (रूस और चीन के अलावा) ब्राज़ील पर सबसे ज़्यादा टैरिफ़ लगाए हैं — ब्राज़ील 50 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका 30 प्रतिशत और भारत 50 प्रतिशत। ये तीनों वैश्विक दक्षिण (ग्लोबल साउथ) के प्रमुख देश हैं, जो क्रमशः दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत अगले साल ब्रिक्स की अध्यक्षता करेगा। यह एक ऐसा अवसर है, जो ऐसी नीतियाँ बनाने के लिए नेतृत्व करने का मौका देगा, जो व्यापार और निवेश में ग्लोबल साउथ सहयोग को बढ़ा सकें।
क्या मोदी सरकार में एक नए रास्ते पर साहसपूर्वक आगे बढ़ने का संकल्प और दूरदर्शिता है, जो एक स्वतंत्र विदेश नीति को बहाल करेगा और वास्तव में रणनीतिक स्वायत्तता सुनिश्चित करेगा? या, क्या वह ट्रम्प के मूड में अगले अनुकूल बदलाव का इंतज़ार करेगी और फिर अधीनस्थ सहयोगी बनने की पुरानी राह पर वापस लौट जाएगी?
(सौजन्य : न्यू इंडियन एक्सप्रेस। लेखक माकपा के पूर्व-महासचिव हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 9424231650)