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मुंबई 26/11 हमला: क्यों नहीं हो सकता तहव्वुर राणा को कसाब की तरह फांसी?

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10 अप्रैल, 2025
26/11 मुंबई आतंकी हमला भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है, जिसने 166 लोगों की जान ले ली और पूरे देश को हिलाकर रख दिया। इस सुनियोजित हमले से जुड़े प्रमुख लोगों में से एक है तहव्वुर हुसैन राणा, एक पाकिस्तानी-कनाडाई व्यवसायी, जिस पर इस साजिश में अहम भूमिका निभाने का आरोप है। जहां अजमल कसाब, हमले का इकलौता जिंदा पकड़ा गया आतंकी, को 2012 में फांसी दी गई थी, वहीं राणा का मामला अलग राह पर है। अमेरिका से भारत प्रत्यर्पित किए गए राणा का मामला अंतरराष्ट्रीय कानून, प्रत्यर्पण संधि और कूटनीतिक आश्वासनों के जाल में उलझा हुआ है, जो उसे फांसी की सजा से बचाता है। आइए, इस चर्चित मामले पर विस्तार से नजर डालते हैं कि राणा को कसाब जैसा अंत क्यों नहीं मिल सकता और इसके पीछे की कानूनी जटिलताएं क्या हैं।

मुंबई हमला: उस भयावह मंजर की याद

26 नवंबर, 2008 को पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) के दस हथियारबंद आतंकियों ने मुंबई पर हमला बोला। ताजमहल पैलेस होटल, ओबेरॉय ट्राइडेंट, छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और नरीमन हाउस जैसे प्रतिष्ठित स्थानों को निशाना बनाया गया। चार दिनों तक शहर बंधक बना रहा, आतंकियों ने अंधाधुंध गोलीबारी की, जिसमें 166 लोग मारे गए और 300 से ज्यादा घायल हुए। यह हमला इतनी सटीकता से किया गया था कि आतंकियों को पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं से सैटेलाइट फोन के जरिए निर्देश मिल रहे थे।

अजमल कसाब को घटनास्थल पर जिंदा पकड़ा गया और वह हमले का चेहरा बन गया। भारत में उसका मुकदमा तेजी से चला—हत्या, राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने और आतंकवाद के आरोपों में दोषी ठहराए जाने के बाद उसे 21 नवंबर, 2012 को पुणे की यरवदा जेल में फांसी दे दी गई। लेकिन कसाब इस साजिश का सिर्फ एक हिस्सा था। जांच में एक बड़े नेटवर्क का खुलासा हुआ, जिसमें तहव्वुर हुसैन राणा का नाम भी सामने आया, जिसके रोल की जांच पिछले एक दशक से चल रही है।

तहव्वुर हुसैन राणा कौन है?

तहव्वुर हुसैन राणा, 64 साल का एक पूर्व पाकिस्तानी सैन्य डॉक्टर और बाद में व्यवसायी, पर 26/11 हमले में आतंकियों को लॉजिस्टिक सपोर्ट देने का आरोप है। पाकिस्तान में जन्मे राणा बाद में कनाडा और फिर अमेरिका चले गए, जहां उन्होंने शिकागो में एक इमिग्रेशन सर्विसेज का बिजनेस चलाया। उनका कनेक्शन हमले से तब सामने आया, जब उनके सहयोगी डेविड कोलमैन हेडली, एक अमेरिकी-पाकिस्तानी एलईटी ऑपरेटिव, ने मुंबई में हमले से पहले टोही कार्य किया।

राणा ने कथित तौर पर हेडली को अपने बिजनेस का इस्तेमाल करके मुंबई में टारगेट की रेकी करने की सुविधा दी। भारतीय और अमेरिकी अधिकारियों द्वारा पेश किए गए सबूतों में फोन रिकॉर्ड, ईमेल और हेडली की गवाही शामिल है, जिसमें राणा को साजिश में शामिल बताया गया। 2009 में अमेरिका में गिरफ्तार हुए राणा को 2011 में आतंकवाद को सामग्री समर्थन देने और डेनमार्क के एक अखबार पर हमले की साजिश रचने का दोषी ठहराया गया। हालांकि, उन्हें मुंबई हमले में सीधी संलिप्तता से बरी कर दिया गया—एक फैसला जिसने भारतीय अधिकारियों को निराश किया।

सात साल की सजा काटने के बाद राणा को 2020 में रिहा किया गया, लेकिन भारत ने उनके प्रत्यर्पण के लिए अपनी कोशिशें तेज कर दीं। 2023 में अमेरिकी अदालत ने उनके प्रत्यर्पण को मंजूरी दी, और अप्रैल 2025 तक वह मुंबई में मुकदमे का सामना करने के लिए भारत पहुंचने वाले हैं। लेकिन कसाब के विपरीत, राणा का न्यायिक सफर अलग नियमों से बंधा हुआ है।

प्रत्यर्पण संधि: भारत के हाथ बांधने वाली कानूनी जंजीरें

राणा के मामले का आधार भारत और अमेरिका के बीच 1997 में हस्ताक्षरित और 1999 में लागू प्रत्यर्पण संधि है। यह संधि उन शर्तों को नियंत्रित करती है, जिनके तहत एक भगोड़े को सौंपा जा सकता है, और यह भारत के न्यायिक विकल्पों पर सख्त सीमाएं लगाती है। जब भारत ने राणा के प्रत्यर्पण की मांग की, तो उसे मुंबई हमले में उनकी संलिप्तता के ठोस सबूत पेश करने पड़े। लेकिन इस संधि ने भारत के लिए कई पाबंदियां भी तय कीं:

  1. मृत्यु दंड पर रोक: संधि में साफ है कि राणा को फांसी की सजा नहीं दी जा सकती। यह शर्त संभवतः अमेरिकी कानून के उस सिद्धांत से प्रभावित है, जो उन देशों को प्रत्यर्पण की इजाजत नहीं देता जहां मृत्यु दंड की संभावना हो, जब तक कि ऐसी सजा न देने का लिखित आश्वासन न मिले।
  2. नए मुकदमों पर प्रतिबंध: भारत राणा के खिलाफ कोई नया मुकदमा दर्ज नहीं कर सकता, भले ही उनके अन्य अपराधों के सबूत मिलें। मिसाल के तौर पर, अगर पूछताछ में राणा भारत में दूसरी आतंकी गतिविधियों को कबूल करता है, तो भी उन मामलों में मुकदमा नहीं चलाया जा सकेगा, क्योंकि वे प्रत्यर्पण दस्तावेजों का हिस्सा नहीं थे।
  3. सीमित धाराएं: भारत उन कानूनी धाराओं को भी नहीं जोड़ सकता, जो प्रत्यर्पण कोर्ट में नहीं बताई गई थीं। यह नियम अंतरराष्ट्रीय कानून के “स्पेशिएलिटी के स
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