लव स्टोरीज, मैच मेकिंग से मीम-मेले तक: ट्रैफिक जाम में छुपे हैं हंसी-ठट्ठे और हुकूमत की नाकामियां

बृज खंडेलवाल


31 अगस्त 2025

आईटी टेकी सुरेश भाई को अपनी मंगेतकर शीला की सालगृह पार्टी में गिफ्ट के साथ वसंत विहार से दिल्ली के दरियागंज इलाके के एक रेस्टोरेंट में पहुंचना था। जोश भरे उत्साह के साथ जब वो रेस्टोरेंट में दाखिल हुए तो महफिल पर पर्दा गिर चुका था। सुरेश ने ट्रैफिक जाम को दोषी ठहराया लेकिन शीला ने एक न सुनी और पुराने दोस्त अभिनव के साथ निकल गई। सच में, ट्रैफिक jams ने तरह तरह के खट्टे मीठे अनुभव लोगों को दिए हैं।


शहरी सड़कों पर गाड़ियों का रेला और हॉर्नों की अनवरत झनकार किसी उधड़े हुए ऑर्केस्ट्रा से कम नहीं। इस “रोज़मर्रा की जाम-ए-ज़िंदगी” में जहाँ कारें घोंघे की चाल से सरकती हैं, वहीं कभी-कभी किस्मत ऐसे मोड़ ले आती है कि लोग जाम को बददुआ नहीं बल्कि दुआ देने लगते हैं।
बेंगलुरु का एक किस्सा लीजिए—एक शख़्स घंटों ट्रैफिक में फंसा रहा, नज़रें मिलीं, दिल धड़का, और बात निकाह तक जा पहुँची। कहते हैं, जाम ने इस बार क़ुबूल है का काम कर डाला। एक और आईटी बाबू ने जब ट्रकभर ऑफिस कुर्सियाँ जाम में देखीं तो मीम बना डाला—“अब ट्रैफिक में भी हो जाए मोबाइल मीटिंग”—और चुटकी ली कि 70 घंटे की वर्कवीक में ये ‘जाम आवर्स’ भी प्रोडक्टिव टाइम में गिने जाएं। उधर, मारथाहल्ली ब्रिज पर बैठे एक मुसाफ़िर के फोन ने सेफ़्टी चेक का मैसेज भेजा, क्योंकि गाड़ी कई मिनटों से हिली ही नहीं थी। जवाब आया—“ख़तरा तो है, लेकिन बोरियत या ऊब से मरने का।” यह ट्वीट वायरल हुआ और सबको हंसी के साथ राहत मिली। मुंबई में तो सड़कों का बाज़ार-ए-जाम ऐसा है कि वड़ा पाव वाले चांदी काट रहे हैं। एक पुराना डिलीवरी बॉय अब ट्रैफिक में खड़े लोगों को वड़ा पाव खिलाकर मिनी-एम्पायर खड़ा कर चुका है।
आजकल तो मज़ाक-मज़ाक में ‘चौराहा जाम यात्रा’ नामक टूर पैकेज तक बिकने लगा—लोगों को शहर के बदनाम चोक प्वॉइंट्स घुमाने का ऑफर। तंज़ का असर यह हुआ कि सरकार को मजबूरी में सुधार के वादे करने पड़े। वहीं गुरुग्राम में बारिश की बौछार ने गाड़ी को नाव और मंत्री को गंगा-स्नान मुद्रा में तब्दील कर दिया। सोशल मीडिया पर मीम्स का सैलाब उमड़ पड़ा।


लेकिन हंसी-ठट्ठे के इस पर्दे के पीछे असलियत और भी सख़्त है—शहरों की लोकल हुकूमत की बदइंतज़ामी। पुलिस और नगर निकायों की लापरवाहियों ने ट्रैफिक को एक बेकाबू अजगर बना डाला है।
मैट्रो सिटीज में कार ड्राइवर्स साल के कई दिन सड़कों पर रेंगते हुए गँवा देते हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट की नाकामी और सड़कों की खस्ता हालत ने मुश्किलें बढ़ा दीं हैं। कई बार लोग कार छोड़कर पैदल घर जाते हैं, बारिश हो या पीक ऑवर का बवाल। नगर निगम और ट्रैफिक पुलिस कॉन्ट्रैक्टरों से तालमेल नहीं बैठा पाते, नतीजा—सड़कें खोदी जाती हैं और महीनों तक दुरुस्त नहीं होतीं।
ताज सिटी की कहानी भी कम दर्दनाक नहीं। एक अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स के पास लाल बत्ती खराब हुई और ढाई घंटे से ज्यादा का जाम लग गया। ट्रैफिक पुलिस पर अक्सर आरोप लगता है कि उनके पास न तो डेटा सिस्टम है, न सही फैसले लेने की क्षमता। नतीजा कई इलाकों में लोग अपने ही हाल पर छोड़ दिए जाते हैं, और मेट्रो प्रोजेक्ट्स बिना ट्रैफिक मैनेजमेंट के चलते रहते हैं। गैरक़ानूनी पार्किंग, फुटपाथ पर अतिक्रमण और पुलिस की चुप्पी ने मिलकर सड़क को मौत का चौराहा बना दिया है। एजेंसियों के बीच तालमेल नाम की चीज़ नहीं।
गुरुग्राम की बरसात तो शहर को तालाब में बदल देती है। एक घंटे की बारिश और सैकड़ों गाड़ियाँ पानी में तैरने लगती हैं। पुलिस गायब, अफ़सरान ग़ायब। लोग सवाल पूछते हैं—“टैक्स का पैसा कहाँ जाता है?”
असल में यह नाकामी सिर्फ ट्रैफिक पुलिस की नहीं, बल्कि पूरे शहरी शासन की है। तेज़ी से फैलते शहर, लेकिन योजना ग़ायब। नतीजा यह कि ट्रैफिक पुलिस सिर्फ बलि का बकरा बनती है, जबकि असल गुनाहगार निकाय और शहरी योजनाकार हैं। और ऊपर से करप्शन—जहाँ चालान वसूला जाता है लेकिन जाम पर किसी का ध्यान नहीं।
हल तो मौजूद हैं—बेहतर ट्रैफिक सिग्नल, नए जंक्शन डिज़ाइन, मज़बूत पब्लिक ट्रांसपोर्ट—but मरज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। नौकरशाही की सुस्ती और जवाबदेही की कमी के चलते हालात जस के तस हैं।
शहरों का डिजाइन, ट्रैफिक लाइट सिंक्रॉनाइजेशन, सार्वजनिक परिवहन की किल्लत, सरकारी विभागों का आपसी तालमेल—यही असली मुसीबत के जड़ हैं। बेंगलुरु के डिप्टी सीएम तक स्वीकारते हैं कि उनके बच्चे और हाईकोर्ट के जज भी जाम से परेशान हैं—कई बार 10-15 किलोमीटर जाने में 6-7 घंटे लग जाते हैं। सड़कें खोदी जाती हैं, महीनों दुरुस्त नहीं होती; मेट्रो क्रमशः विस्तार पाती है पर ट्रैफिक का कोई डेटा नहीं। गैरकानूनी पार्किंग, फुटपाथ पर अतिक्रमण और एजेंसियों का टकराव हालात को और बदतर बनाते हैं।
इन्हीं हालात में मीम, मुस्कुराहट और रोमांस ने ट्रैफिक जाम को एक नई साइकोलॉजी दे दी है—जहाँ गुस्सा राहत में बदल जाता है, और निज़ाम की नाकामी पर आम आदमी हँसते-हँसते अपना वक़्त काट लेता है। जाम रहित शहर फिलहाल सपना है, और सड़कों पर जाम में फँसा आम नागरिक हकीकत।

Thakur Pawan Singh

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