
हास्य से GST हटाओ
न हास्य, न व्यंग, न खिंचाई, न टोक टुकाई!
हास्य बिना सुकून कहां रे !!
बृज खंडेलवाल
4 सितंबर 2025
सोचिए ज़रा, जब आख़िरी बार आपने किसी कार्टून को देखकर ठहाका लगाया था? या किसी अख़बार के व्यंग्य कॉलम ने आपको इतना हँसाया कि चाय नाक से बाहर आ गई हो? याद नहीं आ रहा? यही तो मसला है—हमारी हँसी चोरी हो रही है, और हमें पता भी नहीं चला।
आज का डिजिटल ज़माना तो शोर-शराबे का मेला है। सोशल मीडिया की भीड़ में हर कोई चिल्ला रहा है—“मेरे मीम देखो! मेरी रील लाइक करो!”—लेकिन हँसी कहीं गुम हो गई है। जो हँसी कभी नुकीले तीर की तरह नेताओं, बाबुओं और समाज के ढोंग को भेदती थी, वो अब सतही ठिठोली में बदल गई है।
आज़ादी के बाद का हिंदुस्तान याद कीजिए। अख़बार के पहले पन्ने पर आर.के. लक्ष्मण का कॉमन मैन खड़ा होता था—धोती, चश्मा और आँखों में बेबसी। एक छोटी-सी लाइन ड्रॉइंग में इतना दम होता था कि पूरा समाज आईना देख ले। शंकर, सुधीर धर, अबू—ये सब सिर्फ़ कार्टूनिस्ट नहीं थे, बल्कि उस दौर के सबसे बड़े संपादक थे।
अब देखिए—लैपटॉप पर बना रंग-बिरंगा कार्टून, चमकदार ग्राफिक्स, लेकिन बात में दम नहीं। जैसे शादी में पचास तरह के पकवान हों, पर नमक भूल गए हों।
आजकल ह्यूमर का मतलब है मीम—नेता जी की फ़ोटो पर मज़ाकिया कैप्शन चिपका दिया और समझ लो दुनिया बदल दी। एक-दो घंटे में वायरल, फिर कूड़े में। सोशल मीडिया की एल्गोरिदम की दौड़ में कलाकार सोच नहीं रहे, बस क्लिक गिन रहे हैं।
ह्यूमर टाइम्स की संपादक मुक्ता गुप्ता कहती हैं—“आज के कार्टूनिस्ट या तो धर्म से डरते हैं या राजनीति से। बाक़ी बचा आम आदमी, उसी पर मज़ाक चलता है।” सही भी है, नेताओं पर तंज़ कसो तो मुक़दमा, धर्म पर करो तो जान का खतरा, तो बचा क्या? आलू-प्याज़ पर जोक्स?
2015 का चार्ली हेब्दो हमला याद है? दुनिया भर में कार्टूनिस्ट सहम गए। भारत में 2021 में एक कॉमेडियन को जेल जाना पड़ा क्योंकि उसने देवताओं पर टिप्पणी कर दी। अब हालत यह है कि कलाकार पहले सोचते हैं—“यह मज़ाक करूँ या FIR आ जाएगी?”
डॉ मनोज सिंह, आगरा यूनिवर्सिटी के कला शिक्षक कहते हैं—“हम अपने बच्चों को बताते हैं कि ह्यूमर गहराई से पैदा होता है, लेकिन सोशल मीडिया की पीढ़ी को सिर्फ़ शोर चाहिए।” यही वजह है कि आज का कॉमेडी शो ज़्यादा हँसाता नहीं, बस ध्यान बँटाता है।
एक तरफ़ लक्ष्मण का अख़बार वाला कार्टून—जिससे नेताओं की नींद उड़ जाए। दूसरी तरफ़ आज का यूट्यूब स्केच—जिसमें पाँच दोस्त एक ही मज़ाक को दस बार दोहराते हैं। पहला कला था, दूसरा ‘कंटेंट’। फर्क समझना मुश्किल नहीं।
पश्चिम में भी यही हाल। द डेली शो कभी समाज की सबसे तीखी आलोचना करता था, अब ज़्यादा सियासी झुकाव लिए मज़ाक करता है। ट्विटर (अब X) पर तो हँसी का मतलब है किसी को कैंसल कर देना। साहित्य से ह्यूमर और सटायर लिखने वाले गायब हो गए। सतही हास्य वॉट्सएप चुटकुलों से शेयर हो रहा है। बॉडी शेमिंग गैर कानूनी है। महिलाओं की सिर्फ तारीफ की जा सकती है।
इंडियन टीवी चैनल्स, शुरुआत में रेगुलर कॉमेडी सोप्स प्रसारित करते थे। मुसद्दी लाल फेमस हुआ, जसपाल भट्टी ने खूब आईना दिखाया। फिल्मों से कॉमेडियंस गायब हो गए। महमूद, जॉनी वॉकर, जौहर, असरानी, जगदीप, तमाम हास्य आर्टिस्ट्स होते थे। अब आता है एक बेहूदा टोटली कमर्शियल “कोई शर्मा शो” जो फिल्मों का प्रमोशन करता है।
हास्य में गिरावट, मतलब बीमार समाज। राजनीति से पीलू मोदी, राज नारायण टाइप नेता लुप्त हो गए। अब मंच से हास्य रचनाएं नहीं, प्राइम मिनिस्टर की मदर को गाली फेंकी जाती हैं। राहुल गांधी हंसने हंसाने से परहेज करते हुए खुद हास्य के पात्र बन जाते हैं। शीर्ष नेता हंसने के मामले में Shylock से ज्यादा कंजूस हैं।
लेकिन सबकुछ अंधेरा नहीं है। आज भी पॉडकास्ट, इंडी कॉमिक्स और छोटे प्लेटफ़ॉर्म्स पर नए कलाकार असली हँसी की तलाश में जुटे हैं। भारत में स्टैंड-अप कॉमेडी का बूम यही बताता है कि लोग हँसना चाहते हैं, बस माहौल डरावना न हो। जिनको हंसी नहीं आती है उनके लिए गुदगुदी करने के लिए उंगलीबाजों की सेवा उपलब्ध है।
व्यंग्यकार पांडे कहते हैं—“आज़ाद समाज वही है जहाँ आलोचक ज़िंदा रह सके।” यानी जहाँ ह्यूमर मरे, समझ लो आज़ादी भी बीमार है।
ह्यूमर इंडस्ट्री का पतन सिर्फ़ कलाकारों का संकट नहीं, यह समाज की सेहत का आईना है। अगर हँसी गायब है तो समझिए डर बढ़ रहा है।