नागरिक परिक्रमा

संजय पराते

नागरिक परिक्रमा

  1. जस्टिस नागरत्ना की असहमति पर गौर करना जरूरी

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने सोमवार को बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश विपुल एम. पंचोली को शीर्ष न्यायालय में पदोन्नत करने की सिफारिश की है।कॉलेजियम ने न्यायाधीश पंचोली को पदोन्नत करने की सिफारिश 4-1 के बहुमत से की है। कॉलेजियम में पांच सदस्य है : भारत के मुख्य न्यायाधीश भूषण आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत, विक्रम नाथ, जेके माहेश्वरी और बी वी नागरत्ना। जस्टिस नागरत्ना ने पंचोली के नाम का विरोध किया है। न्यायमूर्ति पंचोली की नियुक्ति पर अपनी कड़ी असहमति दर्ज करते हुए उन्होंने कहा है कि पंचोली की नियुक्ति न केवल न्याय प्रशासन के लिए “प्रतिकूल” होगी, बल्कि कॉलेजियम प्रणाली की विश्वसनीयता को भी खतरे में डालेगी।

हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के जरिए होती है। यह सामान्य सिद्धांत है कि कोई भी निर्णय यदि सर्वसम्मति से नहीं हो सकता, तो फिर बहुमत से हो। लेकिन इस सिद्धांत का पालन “कॉलेजियम प्रणाली की विश्वसनीयता को खतरे में डालकर” करना कितना उचित होगा? न्यायमूर्ति नागरत्ना की असहमति से यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने असहमति के जो बिंदु उठाए हैं, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। न्यायमूर्ति पंचोली की पदोन्नति का विचार सबसे पहले मई में सामने आया था और उनके सहित कॉलेजियम के दो सदस्यों ने अपनी आपत्तियाँ व्यक्त की थीं। इन आपत्तियों के मद्देनजर पंचोली का प्रस्ताव रद्द कर दिया गया था। फिर तीन माह में ऐसा क्या हुआ कि फिर यही नाम सामने आ गया?

पंचोली गुजरात से आते हैं। यह सामान्य सिद्धांत है कि सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिए। आज सुप्रीम कोर्ट में कई राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व नहीं है, जबकि गुजरात का प्रतिनिधित्व दो न्यायाधीश कर रहे हैं। ऐसे में फिर से गुजरात को ही सुप्रीम कोर्ट में प्रतिनिधित्व देने से संतुलन बिगड़ेगा, जबकि अखिल भारतीय वरिष्ठता क्रम में पंचोली का स्थान 57वां है।

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने न्यायमूर्ति पंचोली की गुजरात उच्च न्यायालय से पटना उच्च न्यायालय में उनके स्थानांतरण को भी “असामान्य” बताया है और कहा है कि यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया था। यह “असामान्य” क्या था, इसे जानने के लिए न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कॉलेजियम से आग्रह किया है कि 2023 के स्थानांतरण से संबंधित गोपनीय कार्यवृत्त मंगवाए जाएँ और उनका अवलोकन किया जाए। स्पष्ट है कि ‘गोपनीयता’ के कारणों से वे इस असामान्य को सार्वजनिक नहीं कर रही है। लेकिन इससे साफ संकेत मिलता है कि यह “असामान्य” किसी भी रूप में सामान्य नहीं है और यह एक न्यायाधीश के रूप में उनकी कार्यप्रणाली, आचार व्यवहार और चरित्र से जुड़ता है, जो एक न्यायाधीश के रूप में उनकी खामियों की ओर भी इंगित करता है। इसीलिए अपनी असहमति व्यक्त करते हुए उन्होंने यह भी कहा है कि यदि जस्टिस पंचोली की नियुक्ति होती है, तो वे अक्टूबर 2031 से मई 2033 तक चीफ जस्टिस के रूप में कार्यरत हो सकते हैं, जो उनके अनुसार संस्थान (न्यायपालिका) के हित में नहीं होगा।

जस्टिस नागरत्ना की न्यायिक निष्पक्षता निर्विवाद और काबिले तारीफ है। इसीलिए उनकी असहमति पर गौर करना जरूरी है। मोदी राज में जिस तरह से संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर हमले हो रहे हैं और उनकी स्वतंत्रता का क्षरण हो रहा है, इन परिस्थितियों में सुप्रीम कोर्ट पर ही देश की आम जनता का भरोसा बचा हुआ है। आज जब संघी गिरोह और उसके प्रतिनिधि के रूप में सत्ता में बैठी भाजपा द्वारा संविधान और उसके मूल्यों पर तीखे हमले हो रहे हैं, संविधान के संरक्षक और व्याख्याकार के रूप में, संविधान बचाने की लड़ाई में, सुप्रीम कोर्ट की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है और पूरे देश की आशा सुप्रीम कोर्ट पर ही टिक जाती है। सुप्रीम कोर्ट के ढहने के बाद इस बाबा साहेब आंबेडकर की अगुआई में बने इस देश के संविधान को भी ढहने से कोई नहीं बचा सकता। इसलिए यदि पंचोली में ऐसा कुछ “असामान्य” है, जिसके चलते तीन माह पहले कॉलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट में उनकी नियुक्ति के विचार को खारिज कर दिया था, तो उनकी नियुक्ति को तब तक वैध नहीं माना जा सकता, जब तक कि पंचोली अपनी “असामान्यता” की स्थिति से बाहर नहीं आ जाएं। इसलिए तीन माह बाद ही उनकी खारिजी को दरकिनार करके उन्हें सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त करने के फैसले को, बहुमत से ही सही, हरी झंडी देना ‘पर्दे के पीछे बहुत कुछ चल रहे’ होने का संदेह तो जरूर पैदा करता है। इस संदेह से तो यही सहज निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 57 लोगों की वरिष्ठता को दरकिनार कर की जा रही इस नियुक्ति का आधार योग्यता तो हो नहीं सकती, इसलिए यह नियुक्ति राजनैतिक है। यदि ऐसा है, तो हमारे देश का संविधान और न्यायपालिका का भविष्य खतरे में है।


  1. केरल में भाजपा का खाता खोलने का सच

केरल राज्य का इतिहास है कि इस राज्य की विधानसभा पर बारी-बारी से कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ़ और माकपा के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा ने कब्जा किया है। पिछला विधानसभा चुनाव ही इसका अपवाद है, जब माकपा के मोर्चे ने लगातार दूसरी बार विजय प्राप्त की है। इसी प्रकार, लोकसभा चुनाव की सीटों का बंटवारा भी दोनों मोर्चों के बीच ही हुआ है। इसलिए यह माना जा सकता है कि केरल राज्य कांग्रेस और माकपा का गढ़ है। इनके बीच किसी तीसरे दल की उपस्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों में केरल के त्रिशूर लोकसभा सीट पर भाजपा के प्रत्याशी सुरेश गोपी ने विजय प्राप्त की थी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में इस सीट पर भाजपा तीसरे स्थान पर थी। त्रिशूर लोकसभा क्षेत्र को माकपा का गढ़ माना जाता है। इसलिए इस लोकसभा क्षेत्र से भाजपा की विजय को गोदी मीडिया द्वारा माकपा के गढ़ में भाजपा के सेंध के रूप में प्रचारित किया गया। उल्लेखनीय है कि इस लोकसभा चुनाव के दौरान ही माकपा की त्रिशूर जिला समिति के बैंक खाते को चुनाव आयोग द्वारा ब्लॉक कर दिया गया था। तब माकपा ने आरोप लगाया था कि भाजपा को जीताने के लिए ही चुनाव आयोग ने यह काम किया है, ताकि चुनाव प्रचार के लिए माकपा अपनी धनराशि का उपयोग न कर सके।

लेकिन राहुल गांधी द्वारा लोकसभा चुनाव के दौरान दक्षिण भारत के एक विधानसभा के अध्ययन के बाद वोट चोरी के जो प्रामाणिक आरोप चुनाव आयोग पर लगाए गए हैं, उसके बाद देश भर की मतदाता सूचियों के अध्ययन से जो चीजें निकलकर सामने आ रही हैं, वे आश्चर्यजनक है और इस बात की पुष्टि कर रहे है कि वोट चोरी का यह पैटर्न पूरे देश में अपनाया गया है। ‘द न्यूज मिनट’ ने भी त्रिशूर लोकसभा सीट का अध्ययन किया है। इसने रिपोर्ट से पता चलता है कि माकपा के बैंक खातों को ब्लॉक करने के साथ ही यहां भी फर्जी वोटिंग का यही पैटर्न अपनाया गया था।

‘द न्यूज़ मिनट’ की पड़ताल में यह बात सामने आई है कि यहाँ पांच साल में 1.46 लाख मतदाता जोड़े गये और 2019 की चुनाव में तीसरे नंबर पर रहने वाले सुरेश गोपी को जितवाया गया। बीजेपी के नेताओं के कथित रिश्तेदार और खाली बिल्डिंग के पते पर लोगों के मतदाता कार्ड बनाये गये। कमाल की बात यह है कि जिन लोगों को जोड़ा गया, उनमें से 99% लोग अब त्रिशूर में नहीं रहते। सुरेश गोपी के ड्राइवर अजय कुमार के पते पर ही दर्जनों वोट पड़े, जिनका कोई रिकार्ड अब नहीं है। इसी तरह हजारों वोट बीजेपी नेताओं, कार्यकर्ताओं के घर से पड़े, जिनका कोई रिकार्ड ढूढ़ने से नहीं मिल रहा है।

सुरेश गोपी के रूप में भाजपा की विजय को चिन्हित करने के लिए अब उन्हें केंद्र सरकार में मंत्री बना दिया गया है। तो यह है, केरल में संघीयों के खाता खोलने का सच। लगता है कि अब किसी भी सीट की छानबीन कर ली जाएं, भाजपा की जीत में ऐसे ही फर्जीवाड़े उजागर होंगे। यह फर्जीवाड़ा भाजपा की जीत को अवैध बना देता है। भाजपा भले ही तीन-साढ़े तीन साल और सत्ता में रह लें, आम जनता की नजरों में अब उसका ऊपर चढ़ना मुश्किल है। वोट चोर, गद्दी छोड़ का विपक्ष का नारा एक मजबूत अर्थ ग्रहण करता जा रहा है।

Thakur Pawan Singh

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