
ब्रज मंडल का जहरीला पर्यावरण: क्या प्रदूषण ढक देगा TTZ की तहज़ीब और विरासत?

1 सितम्बर 2025
ताजमहल के गुम्बदों पर जमी धूल-धुंध अब जैसे स्थायी मेहमान बन गई है। यमुना, जो कभी इसकी ख़ूबसूरती का आईना हुआ करती थी, आज साल के दस महीने बदबूदार, ठहरी हुई और बेजान पड़ी रहती है—वृंदावन से लेकर आगरा और आगे तक श्रीकृष्ण भूमि का यही हाल है।
पर्यावरण-संवेदनशील ताज ट्रेपेज़ियम ज़ोन (TTZ) घुट रहा है—इसकी हवा, पानी और मिट्टी दशकों की लापरवाही और अनियंत्रित, बेतरतीब निर्माण कारोबार की वजह से ज़हरीली हो चुकी है। जो कभी चेतावनी की घंटी थी, वह अब संगीन इम्तिहान बन चुकी है। भारत की सांस्कृतिक शान का प्रतीक तमाम ऐतिहासिक इमारतें आज अस्तित्व के ख़तरे में है, ऐसा कहना है फ़्रेंड्स ऑफ़ वृंदावन के संयोजक जगन्नाथ पोद्दार का।
TTZ की दुर्दशा कोई स्थानीय मसला नहीं बल्कि सामूहिक नाकामी है—और अब तो यह नेशनल शर्मिंदगी बनती जा रही है। दशकों से अदालतों के हुक्म, ख़ास जोन, और अधकचरे “एक्शन प्लान” बनते रहे, लेकिन नतीजा यही है कि यह इलाक़ा आज भी एक पर्यावरणीय तबाही का मैदान बना हुआ है, जहाँ न विरासत महफ़ूज़ है, न इंसानों की सेहत।
सबसे बड़ा गुनहगार प्रदूषित हवा है। आगरा का एयर क्वॉलिटी इंडेक्स अक़्सर “ख़राब” और “ख़तरनाक” कैटेगरी में फिसल जाता है। हवा में धूल और ज़हरीले कण निर्धारित हद से कहीं ज़्यादा हैं। दिवाली जैसे मौकों पर PM10 की सतह ऐसे बढ़ जाती है कि दुनिया के विकसित देशों में इसे सेहत इमरजेंसी माना जाता। ताजमहल का संगमरमर, जो पीला पड़ रहा है और जगह-जगह गड्ढेदार हो गया है, हर रोज़ इस लापरवाही का सबूत है। ऊपर से मॉनिटरिंग स्टेशन के पास पानी का छिड़काव करके आंकड़े कम दिखाने के इल्ज़ाम हुकूमत पर पिछले साल लगे थे।
इस प्रदूषण का असर सेहत पर भयानक है। ताज़ा स्टडीज़ के मुताबिक PM10 की वजह से आगरा में बच्चों के ब्रॉन्काइटिस के दो-तिहाई मामले होते हैं। अस्पतालों में दमा, आँखों के संक्रमण और चर्म रोग बढ़ते जा रहे हैं। अब इन्हेलर और ऐंटीबायोटिक को रसोई की तरह ज़रूरी सामान मानने लगे हैं।
अगर हवा ज़हर है, तो यमुना मौत की धीमी धारा बन चुकी है। कभी आगरा की जीवनरेखा रही यह नदी अब गंदे नालों और कारख़ानों के ज़हरीले पानी की नाली बन गया है। कुछ हिस्सों में मल-कोलिफॉर्म की सतह अरबों प्रति 100 मिलीलीटर पहुँच चुकी है—जिससे नहाना तो दूर, पानी पीने का सवाल ही नहीं। मछलियाँ ग़ायब हो गईं, काई और कीड़े ताजमहल के आस-पास के माहौल को बिगाड़ रहे हैं और यमुना नदी किनारे की आबादियाँ रोज़गार से लेकर सेहत तक हर मोर्चे पर तबाही झेल रही हैं, रिवर कनेक्ट कैंपेन की कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर बताती हैं।
नदी कार्यकर्ता चतुर्भुज तिवारी याद दिलाते हैं: “सुप्रीम कोर्ट का ₹58.4 करोड़ का जुर्माना और NGT की बार-बार की दख़लअंदाज़ी के बावजूद 22 नालों से गंदा पानी आज भी बिन रोक-टोक बह रहा है। यमुना बेसिन के 37 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स में से आधे से कम तय मापदंडों पर खरे उतरते हैं। 2025 तक ‘नहाने लायक पानी’ के जो पैरामीटर्स तय हुए थे, वह आज सिर्फ़ एक खोखला वादा रह गए है—जिसे दरिया से उठती बदबू दिन-रात मज़ाक बना रही है।”
जैव-विविधता विशेषज्ञ डॉ. मुकुल पंड्या बताते हैं, “ज़मीन पर हालात कुछ बेहतर नहीं। आगरा की हरियाली घट रही है, ज़मीन के नीचे का पानी हर साल तक़रीबन 7 सेंटीमीटर कम हो रहा है, और कंक्रीट की तामीरात ने शहर की नैसर्गिक रीचार्ज की क्षमता छीन ली है। यमुना किनारे बनी सीमेंट की दीवारों ने बाढ़ और सूखे दोनों को और बढ़ा दिया है।”
आख़िर यह जड़ता क्यों? वजह साफ़ है—हुकूमत की नाकामी। रिवर कनेक्ट कैंपेन से जुड़े कार्यकर्ता कहते हैं, “नीतियाँ काग़ज़ पर हैं, अदालतों के हुक्म फाइलों में दफ़्न हैं, कमेटियाँ रिपोर्टें बनाती हैं—लेकिन अमल नाम की चीज़ ग़ायब है। कारख़ाने उत्सर्जन नियम तोड़ते हैं, नगर निकाय गंदे नालों को खुला छोड़ते हैं, और शहरी समाज को टोकन मोहिमों से आगे कभी सचमुच जोड़ा ही नहीं गया। जो TTZ कभी मिसाल माना जाता था, अब टुकड़ों-टुकड़ों में अमल की वजह से मज़ाक बन गया है।”
पर्यावरणविद डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, “हक़ीक़त यह है कि हल न तो अनजाने हैं, न नामुमकिन। सख़्त इंडस्ट्रियल कंट्रोल, सीवेज ट्रीटमेंट की रियल-टाइम मॉनिटरिंग, यमुना का फ्लो बहाल करना, हरे-भरे शहरी नक़्शे, और साफ़ ऊर्जा का इस्तेमाल हैं। बरसाती पानी का संग्रहण, कचरा-रीसाइक्लिंग और अवाम की भागीदारी हालात को जड़ से बदल सकती है। लेकिन इसके लिए सियासी इरादा चाहिए—जो आगरा को बार-बार महरूम रखा गया।”
आज आगरा सिर्फ़ एक शहर का मसला नहीं रहा; यह एक दर्दभरी दास्तान है कि जब तरक़्क़ी बेक़ाबू होती है और विरासत को बेसहारा छोड़ दिया जाता है, तो अंजाम कैसा होता है। अगर हिंदुस्तान ताजमहल—मोहब्बत और फ़न का आलमी प्रतीक—को भी नहीं बचा सकता, तो यह हमारे पर्यावरण और हुकूमत दोनों के ढांचे की गिरावट का एलान है।