
Thu, 27 Aug 2025 08:35 PM IST, नई दिल्ली, भारत।
राज्यों के भाषाई पुनर्गठन पर उठे सवाल, क्या एक नया आयोग भारत को एक कर पाएगा?
लेखक: बृज खंडेलवाल
कुछ समय पहले तमिलनाडु में लेखक ने महसूस किया कि अपने ही देश में अपनी भाषा अजनबी बन गई है। यह भाषाई अलगाव भारत के लिए एक गहरा घाव बन चुका है, जिसका आरोप 1956 में पंडित नेहरू सरकार द्वारा राजनीतिक दबाव में लिए गए भाषाई आधार पर राज्यों के ऊटपटांग गठन पर लगाया जाता है।

नेहरू की भूल: एकता की जगह, भाषाई संघर्ष
भारत की “विविधता में एकता” की प्रशंसा तो की जाती है, लेकिन भाषाई अराजकता अब सह-अस्तित्व की जगह संघर्ष का चेहरा बन गई है। आजादी के 75 साल बाद भी भारत में कोई ‘राष्ट्रीय भाषा’ नहीं बन पाई है। इस कारण क्षेत्रीय भाषाई आंदोलन सामाजिक दरारें पैदा कर रहे हैं और अनावश्यक राजनीतिक विरोध को जन्म दे रहे हैं। 1953 में बने स्टेट्स रीऑर्गनाइजेशन कमीशन (SRC) ने राज्यों को भूगोल और प्रशासनिक सुविधा के आधार पर बनाने की सिफारिश की थी। लेकिन 1956 में राजनीतिक दबाव के कारण नेहरू ने भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया। डॉ. अंबेडकर, सरदार के.एम. पन्निकर और डॉ. लोहिया जैसे कई चिंतकों ने इस प्रयोग के भविष्य में विभाजनकारी होने की चेतावनी दी थी, लेकिन उनकी बातों को अनसुना कर दिया गया।
दुनिया से सबक और नए समाधान की ज़रूरत
दुनिया में स्विट्जरलैंड और सिंगापुर जैसे देश बेहतर उदाहरण पेश करते हैं, जहाँ कई आधिकारिक भाषाएँ होने के बावजूद राज्य भाषा के आधार पर नहीं बंटे हैं। इससे साबित होता है कि संस्कृति भाषा से परे भी जीवित रह सकती है। लेकिन भारत में भाषा को राजनीति और सत्ता का एक हथियार बना दिया गया। आज जब डिजिटल कनेक्टिविटी और AI अनुवाद ने भाषाई दूरियों को मिटा दिया है, यह समय है कि भारत एक वैज्ञानिक और तर्कसंगत राज्य पुनर्गठन की दिशा में आगे बढ़े। लेखक का मानना है कि एक नया राज्य पुनर्गठन आयोग (SRC) बनना चाहिए जो राज्यों को जनसंख्या, भूगोल और संसाधनों के आधार पर पुनर्गठित करे, न कि भाषा पर। क्षेत्रीय भाषाओं को सांस्कृतिक धरोहर के रूप में बढ़ावा दिया जाए, पर उन्हें राजनीति का आधार न बनाया जाए।
लेखक बृज खंडेलवाल के अनुसार, 1956 की भाषाई भूल ने भारत में विभाजन और विद्वेष की जड़ें गहरी कर दी हैं। अब समय आ गया है कि इस “भाषाई बम” को डिफ्यूज़ किया जाए और एक ऐसे एकीकृत भारत की नींव रखी जाए, जहाँ भाषा बंटवारे का नहीं, बल्कि गर्व का प्रतीक हो।
