टैरिफ संकट के हल का शैक्षणिक मार्ग

टैरिफ संकट से हल का शैक्षणिक मार्ग

असर दिखाने लगा प्रो. विनय कुमार पाठक का वैश्विक गठबंधन मॉडल

डॉ. अनिल कुमार दीक्षित

दुनिया आज जिस दौर से गुजर रही है, उसमें अंतरराष्ट्रीय व्यापार और कूटनीति के समीकरण तेजी से बदल रहे हैं। अमेरिका और यूरोप द्वारा आयात शुल्क बढ़ाए जाने के कारण भारत के पारंपरिक निर्यात उद्योगों पर गहरा दबाव पड़ा है। वैश्विक मंच पर टैरिफ संकट ने न केवल भारतीय वस्त्र और कृषि उत्पादों, बल्कि इंजीनियरिंग और तकनीकी वस्तुओं की प्रतिस्पर्धा क्षमता को भी प्रभावित किया है। ऐसी स्थिति में जब व्यापार की दीवारें ऊंची हो रही हैं, भारत ने एक नया रास्ता शिक्षा और शोध सहयोग में तलाशा है। यही वह बिंदु है जहां भारतीय विश्वविद्यालय संघ यानी एसोसिएशन ऑफ इंडियन यूनिवर्सिटीज (एआईयू) के अध्यक्ष प्रोफेसर विनय कुमार पाठक की भूमिका सामने आती है।

प्रोफेसर विनय कुमार पाठक

टैरिफ संकट के समय शिक्षा और ज्ञान-विनिमय एक ऐसा क्षेत्र है, जिस पर कोई शुल्क नहीं लगता। ज्ञान का आदान-प्रदान किसी सीमा या आयात-निर्यात कर पर निर्भर नहीं करता। यही कारण है कि जब व्यापारिक रिश्ते कठिन होते हैं, तब शैक्षणिक रिश्ते देशों के बीच भरोसे की नई डोर बनाते हैं। प्रो. पाठक ने इसी तथ्य को आधार बनाकर अपने कार्यकाल में अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों से समझौता ज्ञापन (एमओयू) कराए, जिससे भारत की उच्च शिक्षा संस्थाएं वैश्विक शिक्षा जगत से जुड़ सकीं। एआईयू अध्यक्ष के रूप में प्रो. पाठक ने केवल घोषणाओं तक सीमित न रहते हुए सक्रिय यात्राएं कीं। अध्यक्ष के रूप में ऐसा पहली बार किया गया था अभी तक यह पद सिर्फ आर्नामेंट यानी शोभा की वस्तु की तरह था। उन्होंने ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और किंग्स कॉलेज लंदन, अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, फ्रांस की सॉर्बोन यूनिवर्सिटी, जर्मनी की हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी, जापान की टोक्यो यूनिवर्सिटी, और ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न के साथ एमओयू किए। इसके अलावा, सिंगापुर की नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर तथा खाड़ी क्षेत्र की दुबई इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी और किंग सऊद यूनिवर्सिटी, रियाद से भी भारत के विश्वविद्यालयों को जोड़ने में सफलता पाई।

इन गठबंधनों का स्वरूप बहुआयामी है। इनमें छात्र और शोधार्थी विनिमय, संकाय सहयोग, संयुक्त शोध परियोजनाएं, तकनीकी हस्तांतरण और सांस्कृतिक संवाद शामिल हैं। इससे भारतीय विश्वविद्यालयों को वह वैश्विक प्रदर्शन का मौका मिला, जिसकी लंबे समय से आवश्यकता महसूस की जा रही थी। इन एमओयू के जरिए जो सबसे बड़ा लाभ हुआ, वह साझा शोध का है। भारत और विदेशी विश्वविद्यालय अब जलवायु संकट, ऊर्जा सुरक्षा, आतंकवाद की चुनौतियों और वैश्विक व्यापार नीतियों जैसे मुद्दों पर संयुक्त शोध कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, जर्मनी की हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी और भारत के कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने मिलकर नवीकरणीय ऊर्जा पर शोध परियोजना शुरू की है। वहीं अमेरिका की यूएनसीएलए और भारतीय तकनीकी संस्थानों ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तथा साइबर सिक्योरिटी पर सहयोग आरंभ किया है। गठबंधन के बाद यह काम प्रारंभ भी हो गया, ये भी एक उपलब्धि है। इन परियोजनाओं के परिणाम सीधे भारत के उद्योग और समाज तक पहुंच सकते हैं। यह भारत को उन चुनौतियों से निपटने की ताकत देंगे, जो केवल व्यापारिक सौदों से हल नहीं हो सकतीं।

इन गठबंधनों का एक और पहलू विदेशी छात्रों को भारत में आकर्षित करना है। ऑक्सफोर्ड और टोक्यो यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों के साथ साझेदारी ने भारत को अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए एक कमव्ययी और उत्कृष्ट विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया है। भारत की विविधता, योग और आयुर्वेद परंपरा, सूचना प्रौद्योगिकी का ज्ञान और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था विदेशी छात्रों को भारत की ओर खींच रही है। शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक वर्ष में विदेशी छात्रों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है। केंद्र की मोदी सरकार का प्रयास आयुर्वेद को लोकप्रिय बनाने का है, लेकिन विदेशी छात्रों की इसमें रुचि बढ़ना यह वैश्विक विस्तार के संकेत की तरह है। घोर पश्चिमी सभ्यता से ओतप्रोत पश्चिमी देशों के छात्रों ने भी भारतीय आयुर्वेद की ओर अपना रुझान दिखाया है। तय है कि ये भारतीय पारंपरिक चिकित्सा पद्धति के वैश्विक लोकप्रियता की ओर कदम हैं।

शिक्षा केवल ज्ञान का आदान-प्रदान नहीं है, बल्कि यह भारत की सॉफ्ट पावर का भी सशक्त माध्यम है। जब कोई विदेशी छात्र भारत में पढ़कर अपने देश लौटता है तो वह भारत का सांस्कृतिक राजदूत बन जाता है। प्रो. पाठक के प्रयासों से बने शैक्षणिक रिश्ते न केवल आर्थिक लाभ देते हैं, बल्कि कूटनीतिक स्तर पर भारत की छवि को और मजबूत करते हैं। यह कूटनीति की वह शैली है जो हथियारों या व्यापारिक समझौतों से अधिक टिकाऊ साबित होती है। प्रो. पाठक के इन प्रयासों की देशभर में व्यापक सराहना हुई है। यही कारण है कि उन्हें एआईयू अध्यक्ष पद पर कार्यकाल का असीमित विस्तार दिया गया। अभी तक अध्यक्ष का कार्यकाल एक वर्ष का होता है किंतु प्रो. पाठक तब तक अध्यक्ष बने रहेंगे जब तक कि भारतीय विश्वविद्यालय संघ का पुनर्गठन का कार्य पूरा नहीं हो जाता। इस संबंध में सुझाव देने के लिए केंद्र सरकार ने उच्चस्तरीय समिति गठित की है। यह विस्तार उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि से कहीं बढ़कर उस दृष्टिकोण की स्वीकृति है जिसमें शिक्षा को वैश्विक संकटों से पार पाने का साधन और भारत को ज्ञान-आधारित महाशक्ति बनाने का माध्यम माना गया है। आज जब भारत टैरिफ संकट और अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक टकराव की कठोर परिस्थितियों से गुजर रहा है, प्रो. पाठक का शैक्षणिक कूटनीति मॉडल भारत के लिए एक नई राह प्रस्तुत करता है। यह मॉडल दिखाता है कि व्यापारिक दीवारों और शुल्क की रुकावटों के पार भी संवाद और सहयोग की दुनिया मौजूद है और वह दुनिया शिक्षा और शोध से होकर जाती है। यही भारत का असली लाभ है और यही वह राह है जो उसे वैश्विक शक्ति संतुलन में सुदृढ़ स्थान दिला सकती है।

Thakur Pawan Singh

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