संस्कृत की सांसें थामे एक अख़बारसुधर्मा: परंपरा और भविष्य का सेतु

  • संस्कृत की सांसें थामे एक अख़बार
  • सुधर्मा: परंपरा और भविष्य का सेतु

बात 2011 गर्मियों की है। बैंगलोर के एक दैनिक अखबार में पढ़ा कि मैसूर से प्रकाशित विश्व का एकमात्र संस्कृत डेली समाचारपत्र, आर्थिक हालत खस्ता होने से बंदी के कगार पर था। जिज्ञासा हुई कि इस मृतप्राय भाषा में कोई अखबार निकालने की कैसे जुर्रत कर सकता है। कुछ दिन बाद अग्रहारा में उसी गली के नुक्कड़ पर एक दुकानदार से मैं सुधर्मा संस्कृत डेली पत्र का एड्रेस पूछ रहा था। दुकानदार अनभिज्ञ था, लेकिन एक प्रिंटिंग प्रेस की दिशा मुझे बताई। पूछपाछ कर मैं मंजिल तक पहुंच गया। मेज़ सफाई करते एक टीकाधारी व्यक्ति से मैने एडिटर से मिलने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने बैठने का इशारा किया। कुछ समय बाद वही विद्वान संपादक की चेयर पर आकर बैठा और पूछा क्यों मिलना है? मैंने कहा मुझे ये जानने की उत्सुकता है कि कोई व्यक्ति क्यों एक लगभग मरी हुई भाषा में दैनिक अखबार निकाल रहा है। बातचीत अंग्रेजी में हो रही थी। उन्होंने हंसकर पूछा, आपकी शादी किस भाषा में हुई थी, ग्रह प्रवेश पूजा किस भाषा में पंडित ने कराया था, जनेऊ पहना है, कोई संस्कार हुए हैं, बताओ किस भाषा में। उनके हर प्रश्न का उत्तर संस्कृत ही था। “हां, तो बताओ, कैसे संस्कृत उपयोगी या जीवंत भाषा नहीं है?” मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ और क्षमा मांगी। उनके साथ हुई बातचीत के बाद मैंने कई स्टोरीज लिखीं जो अनेकों विदेशी अखबारों में प्रकाशित हुईं, और काफी लोग सपोर्ट में भी आए। 2021 में संपादक जी की डेथ हो गई, और मुझे लगा कि एक अद्भुत संस्थान अब हमेशा के लिए बंद हो जाएगा। लेकिन गजब का साहस और प्रतिबद्धता दिखाते हुए, उनकी धर्म पत्नी ने इस गौरवशाली परंपरा और विरासत को नई ऊंचाई दी हैं। पिछली बार मैं उनसे जब प्रिंटिंग प्रेस में कंप्यूटर से पेज डिजाइन करते वक्त मिला, तो उनका उत्साह और विश्वास देखने लायक था। सही में संस्कृत देवों की भाषा है।


आज जब अंग्रेज़ी और आधुनिक भाषाएँ हमारे जीवन के हर क्षेत्र पर छा चुकी हैं, तब भी एक अख़बार दुनिया को यह याद दिलाता है कि संस्कृत केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि वर्तमान की धड़कन भी हो सकती है। यह अख़बार है सुधर्मा—दुनिया का इकलौता संस्कृत दैनिक।
सुधर्मा की शुरुआत 1970 में मैसूरु के संस्कृत विद्वान पंडित वरदराज अय्यंगार ने की थी। उस दौर में यह विचार किसी चमत्कार से कम नहीं था—“संस्कृत में अख़बार? कौन पढ़ेगा इसे?” लोग कहते थे। पर अय्यंगार ने हार नहीं मानी। उनके लिए संस्कृत केवल ग्रंथों तक सीमित भाषा नहीं थी, बल्कि जीने की शैली थी। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि संस्कृत आज भी प्रासंगिक है और जीवन के हर पहलू को छू सकती है।
उनके निधन के बाद यह ज़िम्मेदारी उनके पुत्र के.वी. संपत कुमार और बहू जयलक्ष्मी पर आई। 2021 में जब संपत कुमार का भी देहांत हो गया, तो लगा अख़बार की यात्रा थम जाएगी। लेकिन जयलक्ष्मी ने प्रण लिया—“सुधर्मा नहीं रुकेगा।”
आज 59 वर्ष की जयलक्ष्मी अकेले इस अख़बार को संभाल रही हैं। टाइपसेटिंग से लेकर प्रूफ़रीडिंग और डाक से वितरण तक, हर काम वे खुद करती हैं। न कोई बड़ी टीम, न कॉर्पोरेट सहारा—सिर्फ़ संस्कृत के प्रति उनका प्रेम और समर्पण।
सुधर्मा का उद्देश्य केवल समाचार देना नहीं है। यह अख़बार संस्कृति, शिक्षा, खेल और प्रेरक विषयों पर केंद्रित रहता है। इसमें विवादों और नकारात्मकता के बजाय सकारात्मक और रचनात्मक सामग्री मिलती है। छोटे-छोटे लेख सरल संस्कृत में लिखे जाते हैं ताकि छात्र और आम पाठक भी आसानी से समझ सकें। आधुनिक विषयों पर भी यह अख़बार पीछे नहीं है। नए शब्द गढ़कर यह दिखाता है कि संस्कृत बदलते समय के साथ चल सकती है। उदाहरण के लिए, तकनीक, विज्ञान और खेल की आधुनिक शब्दावली का संस्कृत रूप गढ़ना, भाषा की जीवंतता का प्रमाण है।
2008 में सुधर्मा ने पहला संस्कृत ई-पेपर शुरू किया। इससे इसके पाठक केवल भारत तक सीमित नहीं रहे, बल्कि दुनिया भर में फैल गए। अमेरिका, जर्मनी, जापान और ऑस्ट्रेलिया तक इसके नियमित पाठक हैं। फिर भी आर्थिक संकट इसकी राह में हमेशा मौजूद रहता है। हर महीने अख़बार चलाने के लिए लगभग 50 हज़ार रुपये की ज़रूरत पड़ती है, जो सदस्यताओं और दान से पूरी होती है।
वार्षिक सदस्यता मात्र 600 रुपये की है, ताकि अधिक से अधिक लोग इससे जुड़ सकें। सीमित संसाधनों के बावजूद यह अख़बार अब भी संस्कृत का ध्वज थामे खड़ा है।
1995 से सुधर्मा का पंचांग भी प्रकाशित हो रहा है, जिसमें त्योहारों, ऋतुओं और पौराणिक कथाओं की जानकारी दी जाती है। पंचांग भारतीय समाज में केवल तिथियों का कैलेंडर नहीं होता, बल्कि जीवन की लय का मार्गदर्शक है। इसे पढ़ते हुए व्यक्ति ऋतुचक्र, व्रत-उपवास और लोकाचार से जुड़ता है।
संस्कृत ने भारत की पहचान गढ़ी। वेदों के मंत्रों से लेकर गीता के श्लोकों तक, कालिदास के काव्य से लेकर आर्यभट्ट और भास्कर के गणितीय सूत्रों तक—हर क्षेत्र में संस्कृत की छाप है। महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्य केवल कथाएँ नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन और नैतिक मूल्यों का भंडार हैं।
संस्कृत ने भारत को ‘विश्वगुरु’ बनाने में अहम भूमिका निभाई। आज भी योग, आयुर्वेद और अध्यात्म के वैश्विक आकर्षण के केंद्र में संस्कृत ही है। यही वह भाषा है जो ध्वनि और अर्थ के सामंजस्य से एक आध्यात्मिक अनुभव कराती है।
जब बड़े-बड़े अख़बार डिजिटल युग में टिके रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तब अकेली जयलक्ष्मी ने साबित किया है कि सच्चा संकल्प और विश्वास एक पूरे आंदोलन को जीवित रख सकता है। सुधर्मा केवल एक अख़बार नहीं, बल्कि भाषा और संस्कृति की धड़कन है। यह दिखाता है कि परंपरा और आधुनिकता साथ-साथ चल सकती हैं।
संस्कृत का यह जीवित चमत्कार हमें याद दिलाता है कि भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं होती—यह हमारी सभ्यता, हमारी पहचान और हमारे भविष्य की आत्मा होती है।

Thakur Pawan Singh

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