संविधान से खिलवाड़ का दोष किसे?
डॉ. अनिल दीक्षित
आज 14 अप्रैल है, भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती। वह महापुरुष जिन्होंने भारत को संविधान जैसी लोकतांत्रिक धरोहर दी, जिसमें हर नागरिक के अधिकारों, गरिमा और समानता की गारंटी निहित है। हर वर्ष इस दिन बड़े-बड़े मंचों से संविधान की महिमा गाई जाती है, पुष्प अर्पित होते हैं, और राजनीतिक दल अपने-अपने चश्मे से डॉ. अंबेडकर को देखने का प्रयास करते हैं। लेकिन जब बात आती है उनके बनाए संविधान की आत्मा की रक्षा करने की, तब असली चेहरा सामने आ जाता है।

दशकों तक देश की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस आज भारतीय जनता पार्टी पर यह आरोप लगाने से नहीं चूकती कि वह संविधान से खिलवाड़ कर रही है। लेकिन इतिहास को याद करें तो सबसे बड़े आघात खुद कांग्रेस ने संविधान पर किए हैं। 1975 का आपातकाल, जब इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए देश को एक खुली जेल में बदल दिया था, क्या वह संविधान की आत्मा के साथ खिलवाड़ नहीं था? मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, प्रेस की स्वतंत्रता छीन ली गई, विपक्षी नेताओं को बिना मुकदमे जेल में डाला गया। यह सब संविधान के संरक्षण के नाम पर नहीं, बल्कि सत्ता की भूख में किया गया। इसी दौरान 42वां संविधान संशोधन लाया गया, वह संशोधन जिसे “मिनी संविधान” कहा गया और जिसने संविधान के मूल ढांचे में इतनी गहरी छेड़छाड़ की कि खुद सुप्रीम कोर्ट को आगे चलकर “बेसिक स्ट्रक्चर डॉक्ट्रिन” देना पड़ा, ताकि कोई सरकार फिर से संविधान के मूल ढांचे के साथ खिलवाड़ न कर सके। कांग्रेस का यह दोहरा चेहरा तब और स्पष्ट होता है, जब हम देखते हैं कि किस तरह धारा 356 का दुरुपयोग कर-करके उन्होंने गैर-कांग्रेसी सरकारों को गिराया। लोकतंत्र के नाम पर चुनी गई सरकारें अगर कांग्रेस की पसंद की नहीं होती थीं, तो उन्हें असंवैधानिक तरीकों से हटाना आम बात थी। 1959 में केरल की पहली वामपंथी सरकार की बर्खास्तगी, 1980 में तमिलनाडु, 1984 में कर्नाटक और आंध्र प्रदेश, इन सभी उदाहरणों में लोकतंत्र को बार-बार अपमानित किया गया।
डॉ. अंबेडकर ने संविधान को ऐसा बनाया था जो सत्ता में बैठे लोगों को भी जवाबदेह बनाता है। लेकिन कांग्रेस शासन में संविधान को कभी सत्ता को सीमित करने वाला दस्तावेज नहीं समझा गया, बल्कि सत्ता को बचाने और बढ़ाने का औजार बना लिया गया। ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ जैसे शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ना एक वैचारिक आग्रह था, पर उसे जिस राजनीतिक माहौल में डाला गया यानी आपातकाल के अंधेरे में, वह उसकी नीयत पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। विचारणीय बात यह है कि जिस संविधान को डॉ. अंबेडकर ने समावेशिता, पारदर्शिता और न्याय के स्तंभों पर खड़ा किया, उसी संविधान के नाम पर आज राजनीति की सबसे बड़ी नौटंकियां की जा रही हैं। जिन दलों ने संविधान की आत्मा को सबसे पहले रौंदा, वही आज “संविधान बचाओ” के मंच सजाकर नैतिकता का उपदेश दे रहे हैं। क्या यह देश की लोकतांत्रिक चेतना का अपमान नहीं है?
संविधान केवल एक कागज़ी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि यह भारत की आत्मा है, वह आत्मा जो किसी भी सत्ताधारी दल की राजनीति से ऊपर है। डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “संविधान उतना ही अच्छा या बुरा होगा जितना अच्छा या बुरा उसे चलाने वाला व्यक्ति होगा।” इस कथन की रोशनी में देखें तो कांग्रेस द्वारा किए गए ऐतिहासिक कृत्य संविधान को ‘बुरा चलाने’ के उदाहरण बन जाते हैं। आज जब देश में विभिन्न सामाजिक वर्गों, विचारधाराओं और संस्थानों के बीच असहमति स्वाभाविक रूप से बढ़ रही है, तब संविधान को संतुलन और संवाद का माध्यम बनाना समय की मांग है। लेकिन जब उसे राजनीतिक हथियार बना दिया जाए, जब संविधान के नाम पर केवल विरोधी दलों को कोसा जाए, तब यह सिर्फ विचारधारा का संघर्ष नहीं, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक आत्मा पर हमला है। डॉ. अंबेडकर की जयंती पर सिर्फ फूल-मालाएं चढ़ाने से कुछ नहीं होगा। सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि हम संविधान की आत्मा की रक्षा करें, न कि उसे राजनीतिक जरूरतों के अनुसार मोड़ने की कोशिश करें। और यह भी समझें कि संविधान से सबसे बड़ा धोखा उस पार्टी ने किया है जो आज दूसरों पर उंगली उठाने की सबसे ज़्यादा कोशिश करती है। लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए जरूरी है कि हम केवल संविधान की बातें न करें, बल्कि उसे अपने आचरण में उतारें, वही आचरण जो डॉ. अंबेडकर के भारत की पहचान बने।
(लेखक शिक्षाविद हैं।)