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सहनशीलता और धैर्य: इस्लाम की सच्ची पहचान

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भारत जैसे विविधता से भरे देश में, विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग एक साथ रहते हैं। ऐसे में, एक-दूसरे के त्योहारों और परंपराओं का असर हमारे जीवन में पड़ना स्वाभाविक है। होली का त्योहार इसी मेल-जोल और रंगों का प्रतीक है। कई बार ऐसा होता है कि होली के दिन नमाज़ के लिए जाते या लौटते समय कोई रंग हमारी पोशाक पर लग जाता है। कुछ लोग इसे अपमान समझते हैं और नाराज़ हो जाते हैं, लेकिन क्या हमारी आस्था इतनी कमजोर है कि केवल एक रंग लगने से वह प्रभावित हो जाए? असली ईमानदारी और धार्मिकता तो सहनशीलता, धैर्य और परस्पर सम्मान में है।

हमारे प्यारे नबी हज़रत मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) धैर्य, प्रेम और सहनशीलता के प्रतीक थे। एक प्रसिद्ध घटना है कि मक्का में एक स्त्री प्रतिदिन उन पर कूड़ा फेंका करती थी। लेकिन पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कभी उसे अपशब्द नहीं कहा, बल्कि जब एक दिन वह स्त्री बीमार पड़ गई, तो उन्होंने उसकी तबीयत पूछी। इस व्यवहार से प्रभावित होकर वह इस्लाम स्वीकार कर बैठी।

अगर हमारे पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपमानजनक व्यवहार के बावजूद धैर्य और प्रेम का संदेश दे सकते हैं, तो क्या हम अपने हिंदू भाइयों की अनजाने में लगी होली के रंगों पर गुस्सा करना शोभा देता है? क्या हमें भी उसी प्रेम और सौहार्द्र का परिचय नहीं देना चाहिए?

कुरआन हमें सहिष्णुता और धैर्य का पाठ पढ़ाता है। अल्लाह तआला फरमाते हैं: “और रहमान के सच्चे भक्त वे हैं, जो धरती पर विनम्रता से चलते हैं और जब अज्ञानी उनसे कटुता से बात करते हैं, तो वे जवाब में कहते हैं: ‘सलाम’।” (सूरह अल-फुरकान 25:63)

यह आयत हमें सिखाती है कि सच्चे ईमान वाले लोग अशिष्टता का जवाब विनम्रता और शांति से देते हैं। जब कोई हिंदू भाई हमें अनजाने में रंग लगा देता है, तो हमें भी इसी धैर्य और शांति का प्रदर्शन करना चाहिए।

इसी प्रकार, अल्लाह फरमाते हैं: “जो विपत्ति और समृद्धि दोनों में अल्लाह की राह में खर्च करते हैं, जो क्रोध को रोकते हैं और लोगों को माफ कर देते हैं – अल्लाह ऐसे नेक लोगों को पसंद करता है।” (सूरह आले इमरान 3:134)

इस आयत से स्पष्ट है कि गुस्से पर नियंत्रण और क्षमा करना इस्लाम का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यदि हम केवल रंग लगने पर क्रोधित हो जाते हैं, तो क्या हम सही मायनों में इस्लाम के अनुयायी हैं?

इस्लाम हमें अपनी आस्था बनाए रखने के साथ-साथ दूसरों के धर्म का सम्मान करने की भी शिक्षा देता है। जैसा कि हम चाहते हैं कि हमारे धार्मिक विश्वासों का सम्मान किया जाए, वैसे ही हमें भी दूसरों की परंपराओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। भारत में हमारे हिंदू भाई होली को खुशी और उल्लास के साथ मनाते हैं। उनकी यह भावना किसी के प्रति अपमानजनक नहीं होती, बल्कि यह मेल-जोल और भाईचारे का प्रतीक है।

कुरआन में अल्लाह तआला फरमाते हैं: “अल्लाह तुम्हें उन लोगों के साथ भलाई करने और न्याय करने से नहीं रोकते, जिन्होंने तुम्हारे साथ धर्म के आधार पर युद्ध नहीं किया और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला। निश्चय ही अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है।” (सूरह अल-मुम्तहिना 60:8)

इस आयत से स्पष्ट है कि हमें उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए जो हमारे साथ शांति से रहते हैं। होली के रंग किसी युद्ध का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि यह एक उत्सव का स्वरूप है, जिसे हमें प्रेम और धैर्य से अपनाना चाहिए।

हमारा धर्म बाहरी आडंबरों से अधिक हमारे आचरण में दिखना चाहिए। यदि एक मामूली रंग हमारी नमाज़ को ‘अशुद्ध’ बना सकता है, तो हमें यह सोचना चाहिए कि हमारा ईमान कितना मजबूत है? क्या एक रंग हमारी इबादत को प्रभावित कर सकता है? या फिर हमारा असली इम्तिहान धैर्य और सहनशीलता में है?

इस्लाम कठोरता का नहीं, बल्कि प्रेम, दया और सहिष्णुता का धर्म है। अगर हम अपने हिंदू भाइयों की होली के रंगों पर गुस्सा करने के बजाय मुस्कुराकर आगे बढ़ें, तो यह इस्लाम की सच्ची भावना होगी।

हमारा कर्तव्य है कि हम पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शिक्षाओं को अपनाएं, कुरआन के संदेश को अपने जीवन में उतारें और समाज में प्रेम और सौहार्द्र का संदेश फैलाएं।

अल्लाह हम सबको सही मार्ग दिखाए और हमें सहिष्णुता और धैर्य का प्रतीक बनाए। आमीन।

डॉ० सिराज कुरैशी,

भारत सरकार द्वारा कबीर पुरस्कार से सम्मानित,

अध्यक्ष – हिंदुस्तानी बिरादरी

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