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विरोधाभासों से जूझता विकसित इंडिया

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आस्था का स्नान बनाम सैटेलाइट्स की डॉकिंग !!
विरोधाभासों से जूझता विकसित इंडिया

एक तरफ इसरो के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में दो सैटेलाइट्स की डॉकिंग के लिए प्रयासरत है, तो दूसरी ओर केंद्र और राज्य सरकारें दुनिया भर के करोड़ों भक्तों को कुंभ मेले में पवित्र स्नान करा कर निर्मल और शुद्ध होना सुनिश्चित कर रही है, ताकि परलोक यात्रा बोझ हीन और सुगम हो।
हमारा देश अदभुत है, विरोधाभासों की भूलभुलैयों में भटक कर स्वर्णिम भविष्य का मार्ग खोज रहा है। डॉक्टरों को अपनी पढ़ाई और काबिलियत से ज्यादा ऊपरवाले की कृपा पर भरोसा है। कई क्लिनिक्स पर स्टीकर चिपके देखे होंगे, “I treat, He cures।” बाबाजी की दुआओं को क्रेडिट मिलेगा, चाहे दवाएं या ऑपरेशन ने नई जिंदगी बख्शी हो। प्राकृतिक इलाज और जड़ी बूटियों के हिमायती भी इमरजेंसी में आईसीयू में ही भर्ती होते हैं। कुत्ता या सांप काट ले, तो बाबाजी के झाड़ फूंकने से दर्द भरे परिणाम ही आते हैं। लेकिन ऐसे भी अपवाद हैं, जिन्हें तंत्र मंत्र से कोई नुकसान नहीं हुआ है,और लाभ मिला है।
शायद विश्व के किसी भी सभ्य समाज में इतनी व्यापक और प्रभावी “ढोंगी इंडस्ट्री” नहीं होगी जो लोगों की भावनाओं, कमजोरियों, परिस्थितियों से अपनी अर्थ व्यवस्था चलाती हो। मीडिया जगत को लीजिए, राशि फल से दिन चर्या शुरु कराते हैं ताकि आपका दिन शुभ हो और आप कष्टों से बचें। एक रोज रोहित भाई की राशि में लिखा था, आज किसी से रोमांटिक मुठभेड़ होगी। लालायित भाव से हर सुंदरी को स्माइल एक्सचेंज करने की वजह से शाम को ठुक ने से बाल बाल बचा बेचारा!
करोड़ों यूजर्स हैं ज्योतिष के ऐप्स के।पंडितजी कंप्यूटर्स से जन्म कुंडलियां बनाते हैं, मुहूर्तों से शादियां तय होती हैं, जबकि रिजल्ट उतना ही शुभ या निराशाजनक हो सकता है। अजीब देश है अपना, साइंस और टेक्नोलॉजी का भरपूर उपयोग अंध विश्वास और कुतर्कों को प्रोत्साहित करने में किया जाता है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स खूब मार्केटिंग कर रहे हैं ऐसे तत्वों की जो आधुनिकता और समतावादी सोच की मुखालफत करते हैं और एक पीछे देखू मानसिकता के समर्थक हैं।
आस्था, विश्वास, भक्ति का योगदान, या भूमिका होती होगी, कौन जाने। लेकिन बहुसंख्यक समाज को तार्किक, वैज्ञानिक सोच से अपने विकास के रास्ते खोजने से भटकाना, ये एक षडयंत्र लगता है।
जब एक ज्योतिषी लैपटॉप से आपका भविष्य बताता है और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से आपके कष्टों से मुक्ति के उपाय सुझाता है, तो वास्तव में ये साइंस और मूर्खता का अदभुत संगम है! और इस विरोधाभास में हमें कुछ भी अटपटा, बेमेल नहीं दिखता, क्योंकि हम अरसे से बच्चों की नजर उतारते देखते आए हैं। कोई छींक दे, या बिल्ली रास्ता काट जाए तो प्लान बदल देते हैं, और कई बार इसका लाभ भी मिल जाता है।
हमारे बुद्धिजीवी स्वीकार करते हैं कि भारत, विविधता का देश है, एक साथ, एक ही समय में कई युगों में जीता है, और बड़ी खूबसूरती से अपने समाज में विरोधाभासों को सहजता से आत्मसात करता है। यहां विज्ञान और अंधविश्वास, दोनों को समान सम्मान मिलता है, और यह विरोधाभास भारतीय समाज की अनूठी पहचान बन चुकी है।
भारत दुनिया के अग्रणी वैज्ञानिक और तकनीकी राष्ट्रों में से एक है। अंतरिक्ष में चंद्रयान भेजने वाले वैज्ञानिकों और तकनीकी विशेषज्ञों के देश में लोग अंधविश्वासों में भी विश्वास रखते हैं, लॉन्चिंग से पहले नारियल फोड़े जाते हैं, पूजा की जाती है। जहां आईआईटी और आईआईएम के छात्र विश्व स्तर पर भारत का नाम रोशन कर रहे हैं, वहीं लाखों लोग राहु-केतु के नक्षत्रों और वास्तु दोष के डर से लाखों रुपए खर्च कर ज्योतिषियों की सलाह लेते हैं।
तकनीक का यह विरोधाभास अचंभित करता है। सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे आधुनिक प्लेटफार्म, जो विज्ञान के प्रचार-प्रसार में मददगार हो सकते हैं, वहीं इनका उपयोग अंधविश्वास फैलाने में भी होता है। विज्ञान के खिलाफ प्रचार करने वाले अक्सर इन्हीं प्लेटफार्मों पर झूठी और भ्रामक सूचनाएं साझा करते हैं। उदाहरण के तौर पर, ‘ग्रहण के दौरान भोजन न करने’ जैसे वैज्ञानिक रूप से असत्य नियमों को बढ़ावा देने के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है।
भारतीय समाज में विरोधाभास सिर्फ तकनीकी क्षेत्र तक सीमित नहीं है। यहां सर्पों, और मूर्तियों को दूध पिलाने की घटनाएं भी उतनी ही उत्सुकता से मानी जाती है जितनी किसी वैज्ञानिक खोज की सराहना। पाखंड प्रमोशन और वैज्ञानिक रिसर्च, दोनों की फंडिंग खूब होती है। क्या पता किससे हमें चमत्कारी लाभ हो रहे हों।
इस विरोधाभासी संस्कृति का मुख्य कारण शिक्षा की खाई और जागरूकता की कमी है। भारत में विज्ञान को अपनाने की आवश्यकता को समझने के साथ-साथ अंधविश्वासों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करना होगा। जब तक यह सामंजस्य स्थापित नहीं होता, भारतीय समाज विज्ञान और अंधविश्वास के बीच झूलता रहेगा।
भारतीय समाज की यह दोहरी पहचान उसकी समृद्ध परंपरा और चुनौतियों दोनों का प्रतीक है। जब तक जवाब न मिल जाए कि अंतिम सत्य क्या है, मौत के बाद प्राणी भूत बनता है, दूसरा जन्म लेता है या बैकुंठ वासी हो जाता है, तब तक आभासी, विरोधाभासी, रियल या मायावी जीवन का आनंद लेते रहें!!

बृज खंडेलवाल, (1972 बैच, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन,) पचास वर्षों से सक्रिय पत्रकारिता और शिक्षण में लगे हैं। तीन दशकों तक IANS के सीनियर कॉरेस्पोंडेंट रहे, तथा आगरा विश्वविद्यालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान के पत्रकारिता विभाग में सेवाएं दे चुके हैं। पर्यावरण, विकास, हेरिटेज संरक्षण, शहरीकरण, आदि विषयों पर देश, विदेश के तमाम अखबारों में लिखा है, और ताज महल, यमुना, पर कई फिल्म्स में कार्य किया है। वर्तमान में रिवर कनेक्ट कैंपेन के संयोजक हैं।

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