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अद्भुत अवसर और संयोग, तकनीकी शिक्षा को मार्केट की जरूरतों से जोड़ना होगा

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AI, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस ने एक जबरदस्त मौका दिया है, भारतीय तकनीकी ग्रेजुएट्स को विश्व पटल पर छा जाने का। गूगल बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है भारत में । अंग्रेजी जानने वाले STEM graduates (science, technology, engineering, maths), दुनिया में सबसे ज्यादा हर वर्ष हमारे देश से निकलते हैं। जरूरत गुणवत्ता सुधारने की है।
2024 में पूरे विश्व में दो लाख 77 हजार पीएचडी अवॉर्ड हुईं, अमेरिका में 77,000, चीन में 56,000, और भारत में सिर्फ 23,000
आज चौथे नंबर पर है भारत सॉफ्टवेयर सर्विसेज में। हमारे डॉक्टर विश्व के अनेक देशों की स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ की हड्डी हैं, लेकिन अपने देश में मेडिकल इंडस्ट्री ग्लोबल हब नहीं बन सकी है।

भारतीय इंजीनियरिंग व्यवसाय और टेक्निकल एजुकेशन संस्थाएं, बदलते समय की मांगों से पैदा हो रही चुनौतियों के लिए संघर्ष क्यों कर रही हैं, जबकि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्स ने अपार संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं।
भारत सरकार अभी भी शिक्षा तंत्र के विस्तार और गुणवत्ता सुधार पर जीडीपी का सिर्फ तीन प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है, जबकि 1966 के कोठारी कमीशन ने 6 प्रतिशत की सिफारिश की थी। नतीजा ये है कि तकनीकी और मेडिकल शिक्षा का बुनियादी ढांचातंत्र कमजोर और लड़खड़ाता सा दिखता है।
आए दिन लोग चीन के चमत्कारी कारनामों से हमारी तुलना करते हैं। ये सही भी है। 1947 में अंग्रेज जो भारत छोड़ कर गए थे वो उस वक्त के चीन से काफी आगे था।
फिर क्या हुआ? इस विकास यात्रा में भारत इतना फिसड्डी कैसे रहा? कुछ लोग सिस्टम को दोष देते हैं, कुछ लीडरशिप को। यानी डेमोक्रेसी और डिक्टेटरशिप का फर्क तो साफ दिखता ही है। चीन को माओ टाइप लीडर मिला जिसने अनुशासन और सख्ती से इतनी बड़ी आबादी को संगठित कर एक दिशा दी।भारत लोकतंत्र के नाम पर लूट खसोट, भ्रष्टाचारी अराजकता और वोट बैंक पॉलिटिक्स में उलझा रहा। परिणाम निराशाजनक और दिशाहीन रहा तथा इनकम असंतुलन का दायरा गहराता गया। हम गांधीवादी संकीर्ण दृष्टिकोण, “स्मॉल इज ब्यूटीफुल” से प्रभावित होकर लघु उद्योगों से बड़े बदलाव की उम्मीद लगाए बैठे रहे, जबकि चीन जैसे देश फुल स्पीड मेगा, लार्ज, चौंकाने वाले प्रोजेक्ट्स को गति देकर विकास की रेस में लीप फ्रॉग (मेढकी उछाल) छलांग लगाकर शीर्ष स्थान पर पहुंच गए।
वर्तमान व्यवस्था के भक्त बताते हैं कि 2014 के बाद एक निर्णायक मोड़ आया और पिछले दस वर्षों में काफी कोर्स करेक्टिव कदम उठाए जाने से विकास यात्रा में मोमेंटम आया है और प्रगति भी दिखने लगी है।
जो भी हो, विशेषज्ञ कहते हैं कि जब तक क्वालिटी ऑफ वर्क फोर्स, यानी जन संसाधन की गुणवत्ता में ग्लोबल स्तर का सुधार या ट्रेनिंग न हो तब तक विकास या प्रगति के नतीजे स्थाई संतुष्टि देने वाले नहीं हो सकते।
गौर तलब है कि इंजीनियर्स का सालाना उत्पादन यूनिवर्सिटीज और उच्च संस्थानों से, लाखों में है, लेकिन अधिकांश जॉब्स के लिए भटकते रहते हैं, या स्पेशलाइज्ड नौकरियों के लिए नाकाबिल पाए जाते हैं। उनमें से कई सार्थक रोजगार पाने या नवाचार में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए संघर्ष करते हुए दिखते हैं।

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बहुत से इंजीनियरिंग और मैन्युफैक्चरिंग उद्योगों में कठोर प्रशिक्षण का अभाव है और वे व्यावहारिक अनुप्रयोग और आलोचनात्मक सोच को प्रमोट करने से भी कतराते हैं। जो प्राइवेट तकनीकी शिक्षण संस्थाएं, पिछले वर्षों में, कुकुरमुत्तों से खुली हैं, उनमें न माहौल है, न व्यवस्थाएं, सिर्फ पैसा कमाई का जरिया हैं नेताओं के लिए। इनसे निकलने वाला कार्यबल उद्योग की खास तरह की मांगों के लिए अपर्याप्त है। फलस्वरूप, इस वर्ग के सदस्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों में “साइबर कुली” की भूमिका निभाते हैं।
भारत की अधिकांश कंपनियां कंजूस हैं, वे रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए सीमित बजट उपलब्ध कराती हैं, जिससे नवाचार प्रभावित होता है। एक उद्यमी बताते हैं कि “लागत में कटौती और आयातित प्रौद्योगिकी पर निर्भरता से हमारा ध्यान स्वदेशी विकास में बाधा डालता है। पेटेंट्स की संख्या भी काफी सीमित है, नए प्रोडक्ट्स नहीं आते। पूरा कंज्यूमर मार्केट सेगमेंट चाइनीज उत्पादों से अटा पड़ा है।”
आईटीआई से इंजीनियरिंग कोर्सेज करके बड़ी संख्या में स्टूडेंट्स इंटरमीडिएट स्तर के कार्यों में, जैसे वेल्डर, फ़िटर, मैकेनिक, कटर, हैवी वाहन ड्राइवर, आदि के कामों में लग जाते हैं। आईटी वाले डेटा फीडर, कोडर, प्रोग्रामर, डिजाइनर जैसे काम पा जाते हैं। हायर लेवल के इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स मल्टीनेशनल कंपनीज में खप जाते हैं। वैसे सबसे ज्यादा ख्वाइश, कितनी भी इंजीनियरिंग पढ़ लो, सरकारी बाबू बनने की रहती है।
सप्लाई और डिमांड के असंतुलन का एक प्रमुख कारण है आपसी संवाद हीनता, इंडस्ट्री और इंजीनियरिंग की शिक्षा देने वाले संस्थानों में। शिक्षा और उद्योग के बीच सीमित संपर्क अत्याधुनिक, उद्योग-प्रासंगिक समाधानों के विकास को रोकता है।
वर्तमान सरकार नई इंटर्नशिप नीति के माध्यम से ये गैप भरने की कोशिश कर रही है। लेकिन अभी इस बात का पूरा एहसास नहीं हो रहा है कि नवाचार पर लागत मूल्य या खर्च प्रतिस्पर्धी और वैश्विक रूप से प्रभावशाली इंजीनियरिंग क्षेत्र के विकास में बाधा डालता है।
सभी यूनिवर्सिटीज को मार्केट से जोड़ने की जरूरत है। स्टूडेंट्स को हैंड्स डाउन ट्रेनिंग मिले, और उनको वैश्विक प्रगति मानदंडों से जोड़ा जाए। राज्य सरकारों को भी प्रणालीगत मुद्दों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
इंजीनियरिंग शिक्षा में सुधार, अनुसंधान एवं विकास में निवेश में वृद्धि, तथा उद्योग-अकादमिक जगत के बीच मजबूत साझेदारी, भारतीय इंजीनियरों की वास्तविक क्षमता को सामने लाने तथा देश को नवाचार में वैश्विक नेता बनाने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

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