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एक डरावना ख्वाब या हक़ीक़त? टाइम मशीन से “आगरा 2047” की सैर

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बृज खंडेलवाल
25 फरवरी, 2025

2047 के “विकसित भारत” में आगरा की क्या तस्वीर होगी? क्या ताज सिटी आगरा भारत के टॉप 5 स्मार्ट शहरों में शुमार होगा? या फिर ये शहरी बदहवासी और लापरवाही के साये में एक डरावने ख्वाब में तब्दील हो जाएगा?
इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमने टाइम मशीन का सहारा लिया। “टीएम” के लेंस के जरिए हमने भविष्य के आगरा की एक झलक देखी…जो इतनी डरावनी थी कि दिल दहल गया।
हमारी रिपोर्ट:

“ये 2047 की एक तपती हुई सोमवार की दोपहर है। मैं दिल्ली-आगरा हाईवे पर उतरता हूँ। सिकंदरा से लेकर ताजमहल तक, सड़कें बर्बादी का एक डरावना नज़ारा पेश कर रही हैं। धूल और कूड़े से भरी हुई ये सड़कें, ढहती हुई इमारतों से घिरी हुई हैं। बसें जहरीला धुआँ उगल रही हैं, जिससे हवा में बदबू फैल रही है।

हरि पर्वत चौराहे पर, ट्रैफिक पुलिस मास्क और इनहेलर बांट रही है, ताकि लोग जहरीली हवा से बच सकें। जब हम राजा की मंडी पहुँचते हैं, तो हमें ऑक्सीजन बूथ पर ले जाया जाता है, ताकि हम अपने फेफड़ों को ताज़ी हवा से भर सकें। जून की गर्मी इतनी तेज़ है कि सहन करना मुश्किल है।
हम एक रेस्तरां में शरण लेते हैं, लेकिन वहाँ बिजली गुल होने की वजह से अंधेरा और बदबूदार माहौल है। सड़कों पर दम घुट रहा है, हॉर्न बजाते वाहनों की भीड़ है, और शोर इतना ज़्यादा है कि कान पक जाएँ। मेट्रो सेवाएँ, जो कभी उम्मीद की किरण हुआ करती थीं, बहुत पहले बंद कर दी गई थीं, क्योंकि औसत यात्री महंगे टिकट नहीं खरीद पा रहा था। मेडिकल कॉलेज आधा खाली पड़ा है, इसके हॉल अव्यवस्था से भरे हुए हैं। बाहर लंबी लाइन लगी है। सूर सदन खस्ता हाल दिख रहा है। वॉचमैन कह रहा है, ‘अब सब घर बैठे देखते हैं।’ हर कोई खौफज़दा है। सड़क पर कम लोग हैं, वाहनों से कम। ऐसा लग रहा है कि शहर का बुनियादी ढांचा लगातार दबाव के कारण ढह गया है।

यमुना नदी, जो कभी जीवन रेखा हुआ करती थी, अब एक स्थिर, प्रदूषित धारा बन गई है। इसके किनारों पर झुग्गियाँ हैं, और नदी के तल पर कॉलोनियाँ उग आई हैं। तथाकथित ‘स्मार्ट सिटी’ एक अव्यवस्थित फैलाव में बदल गई है, जो अनियोजित शहरीकरण का शिकार है। कॉलेज परिसर भयावह रूप से खाली हैं, क्योंकि छात्र अपने उपकरणों से चिपके हुए हैं। उन्हें ऐसी दुनिया में कक्षाओं की कोई ज़रूरत नहीं है, जहाँ AI ही सारा सोचने का काम करता है।

आगरा में प्रदूषण की एक गहरी धुंध छाई हुई है, जो राजसी ताजमहल को ढक रही है। हवा में ज़हर घुला हुआ है, हर शख़्स परेशान दिख रहा है। नदी, औद्योगिक कचरे का कब्रिस्तान बन गई है। सामुदायिक तालाब और नहर नेटवर्क, जो कभी जीवन से गुलज़ार रहते थे, अब घुटन भरे आशियानों से भर गए हैं – विफल शहरी नियोजन का एक डरावना सबूत। सड़कें अव्यवस्थित गंदगी से भरी हैं। जीर्ण-शीर्ण इमारतें उपेक्षा के बोझ तले ढह रही हैं, उनके अग्रभाग पर गंदगी के निशान हैं। कभी जीवंत और रंगीन रहने वाले बाजार अब भूतिया छाया बनकर रह गए हैं। दुकानें वीरान खड़ी हैं, उनकी खामोशी केवल गड्ढों से भरी सड़कों पर चलने वाले खस्ताहाल वाहनों के कराहते इंजनों से टूटती है।

आगरा में ‘विकसित भारत’ का वादा धूल में मिल गया है। स्मार्ट सिटी परियोजनाएँ, जिन्हें कभी उद्धारक के रूप में सराहा गया था, अब विफल महत्वाकांक्षाओं के खोखले स्मारक बनकर रह गई हैं। गहरे मुद्दों को छिपाने के लिए किए गए सौंदर्यीकरण के प्रयास गुमनामी में खो गए हैं। ताजमहल, जो कभी शाश्वत प्रेम का प्रतीक था, पर एसिड रेन और उपेक्षा के निशान हैं। शहर की गंदगी से दूर रहने वाले पर्यटक गायब हो गए हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई है। AI होटल के कमरों में आराम से वर्चुअल टूरिज्म की व्यवस्था करता है।

युवा लोग उम्मीद की किरण दिखाने वाले शहरों में अवसरों की तलाश में भाग गए हैं। केवल बूढ़े, बीमार और बेसहारा लोग ही बचे हैं, जो एक ऐसे शहर में फंसे हुए हैं जिसने उन्हें छोड़ दिया है। कभी आगरा की शान रहे शैक्षणिक संस्थान वीरान हो चुके हैं, उनके पुस्तकालय धूल खा रहे हैं। शहर की जीवंत संस्कृति मुरझा गई है, उसकी जगह निराशा ने ले ली है।

मैं झटकों को झेलने के लिए शाहजहां के बगीचे में रुकता हूं। प्यास से कलेजा बैठा है, एक दुकान से पानी की बोतल मांगता हूं, ” पानी नहीं है, नुक्कड़ के स्टोर से ठंडी बीयर ले लो,” शॉप कीपर एक नेक सलाह देता है।
मैं सोचता हूं, वास्तव में, “आगरा 2047″ एक चेतावनी भरी कहानी है। ये याद दिलाती है कि जब शहरी समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया जाता है, जब अल्पकालिक समाधान दीर्घकालिक समाधानों पर हावी हो जाते हैं, और जब लालच और उदासीनता दूरदर्शिता और करुणा पर हावी हो जाती है, तो क्या होता है। ये एक ऐसा शहर है जो अपना रास्ता खो चुका है, एक ऐसा शहर जिसने क्षणभंगुर लाभों के लिए अपने भविष्य का बलिदान कर दिया है। ये अनियंत्रित शहरी क्षय के विनाशकारी परिणामों का एक डरावना प्रमाण है।”

चिंतित और खौफज़दा हम टाइम मशीन में दाखिल होकर, वर्तमान में लौटने का फैसला करते हैं। लेकिन आगरा के संभावित पतन की भयावह दृष्टि बनी हुई है। क्या हम अपने प्यारे शहर को बचाने के लिए अभी कदम उठाएंगे, या हम इसे बर्बाद होने देंगे? ये चुनाव करना हमारा अधिकार है।

लेखक के बारे में

बृज खंडेलवाल, (1972 बैच, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन,) पचास वर्षों से सक्रिय पत्रकारिता और शिक्षण में लगे हैं। तीन दशकों तक IANS के सीनियर कॉरेस्पोंडेंट रहे, तथा आगरा विश्वविद्यालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान के पत्रकारिता विभाग में सेवाएं दे चुके हैं। पर्यावरण, विकास, हेरिटेज संरक्षण, शहरीकरण, आदि विषयों पर देश, विदेश के तमाम अखबारों में लिखा है, और ताज महल, यमुना, पर कई फिल्म्स में कार्य किया है। वर्तमान में रिवर कनेक्ट कैंपेन के संयोजक हैं।

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