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खामोश सच: मुकेश चंद्राकर की दुखद हत्या और जमीनी पत्रकारिता के खतरे

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ग्रासरूट्स जर्नलिज्म गर्दिश के साए में
एक पत्रकार की हत्या महज आंकड़ा नहीं है, बल्कि एक प्रवृति का प्रतीक है

पिछले हफ्ते, छत्तीसगढ़ के बीजापुर के एक युवा स्वतंत्र पत्रकार मुकेश चंद्राकर की चौंकाने वाली हत्या ने भ्रष्टाचार को एक्पोज करने वाले और संघर्ष से प्रभावित क्षेत्रों, खासकर माओवादी प्रभावित क्षेत्रों में ग्राउंड जीरो से रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों के सामने आने वाले गंभीर खतरों को उजागर किया है।
अपनी साहसिक रिपोर्टिंग और स्थानीय मुद्दों की गहरी समझ के लिए जाने जाने वाले मुकेश न केवल एक कहानीकार थे; वे हाशिए पर पड़े लोगों की आवाज़ थे, जो अशांत माहौल में आम नागरिकों के सामने आने वाली कच्ची सच्चाईयों को उजागर करते थे। कथित तौर पर ठेकेदारों के हाथों उनकी भीषण हत्या, उन खतरों की भयावह याद दिलाती है जिनका सामना स्वतंत्र पत्रकार तब करते हैं जब वे भ्रष्टाचार और दुराचार पर प्रकाश डालने की हिम्मत जुटाते हैं।
1988 में, उत्तराखंड में एक युवा पत्रकार उमेश डोभाल की भी इसी तरह भ्रष्ट गुंडों ने हत्या कर दी थी।
प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में देश के अलग-अलग हिस्सों में मीडियाकर्मियों पर हमलों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है, लेकिन न तो प्रेस संगठन और न ही सुरक्षा एजेंसियां ​​इस मुद्दे को संबोधित करने में सक्षम दिखते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार अजय झा कहते हैं “मुकेश की दुखद घटना इस कठोर सच्चाई को रेखांकित करती है कि पत्रकारिता का काम, खासकर जमीनी स्तर पर, जोखिम से भरा है। उनके जैसे कई पत्रकार शक्तिशाली अभिजात वर्ग के चकाचौंध वाले रडार के नीचे काम करते हैं, जो अक्सर वित्तीय लाभ के बजाय सच्चाई के जुनून से प्रेरित होते हैं। उन्हें अक्सर कम वेतन दिया जाता है या इससे भी बदतर, बिना वेतन के, वे उन कहानियों को उजागर करने के लिए अथक परिश्रम करते हैं जिन्हें मुख्यधारा का मीडिया या तो अनदेखा कर देता है या अपर्याप्त रूप से कवर करता है।”
वास्तव में, ये जुनूनी पत्रकार मीडिया उद्योग के गुमनाम नायक हैं, फिर भी उनके योगदान को शायद ही कभी स्वीकार किया जाता है, क्योंकि वे उच्च संपादकीय मंचों की आवाज़ों की बोझ से दबे रहते हैं, वो हाइ प्रोफाइल एंकर्स, जो अपने आरामदायक कार्यालयों की सुरक्षा से उपदेश देते रहते हैं और क्षेत्र में अपने स्ट्रिंगरों के सामने आने वाले जबरदस्त जोखिमों से अंजान बने रहते हैं।
डिजिटल युग में, जहाँ सूचना इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से स्वतंत्र रूप से प्रवाहित होती है, आज की पत्रकारिता में नव गतिशीलता का संचार हो रहा है। उभरते वैकल्पिक मीडिया प्लेटफॉर्म ने पारंपरिक कॉर्पोरेट मीडिया मॉडल को चुनौती देना शुरू कर दिया है, ठेकेदारों, नौकरशाहों और राजनेताओं की सांठगांठ के माध्यम से किए गए गहरे घोटालों को उजागर करके। हालाँकि, इस बदलाव को उन प्रतिष्ठानों द्वारा पॉजिटिव तरह से नहीं लिया गया है जो खुलासे से खतरा महसूस करते हैं। उन्हें ये स्वतंत्र आवाज़ें परेशान करती हैं, अक्सर असहमति को दबाने के लिए धमकी और हिंसा का सहारा लेते हैं। मुकेश का दुखद निधन उन लोगों के खिलाफ इस हिंसक धक्का-मुक्की का प्रतीक है, जो यथास्थिति को चुनौती देने का साहस करते हैं।
आज के हालात ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में स्वतंत्र पत्रकारिता पर एक लंबी, काली छाया डालते हैं। यह उन पत्रकारों के लिए समर्थन प्रणालियों – या उनकी स्पष्ट कमी – के बारे में जरूरी सवाल उठाता है जो सच्चाई की खोज में खतरनाक क्षेत्रों में जाते हैं। मुकेश की मौत महज एक आंकड़ा नहीं है; यह एक खतरनाक प्रवृत्ति का प्रतीक है ।
सामाजिक कार्यकर्ता डॉ देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, “स्थानीय स्तर पर स्वतंत्र रूप से कार्यरत मीडियाकर्मियों के लिए ज़रूरी सुरक्षा जाल, कानूनी संरक्षण और सहायता की व्यवस्था की जानी चाहिए, क्योंकि व्यक्तिगत जोखिम उठाकर ये पत्रकार अपने जुनून को आगे बढ़ाते रहते हैं।”
जबकि मुकेश की कहानी मीडिया के विमर्श के परिदृश्य में गूंज रही है, समाज के लिए जमीनी स्तर के पत्रकारों के समर्थन में एकजुट होना ज़रूरी है। सच्चाई और न्याय के पैरोकार से कहीं ज़्यादा, ये लोग हमारे देश के दूर-दराज़ के कोनों में आवाज़ों को जोड़ने वाला ताना-बाना हैं। हम उन्हें हिंसा और धमकी के कारण खोने का जोखिम नहीं उठा सकते। रिपोर्ट करने का उनका अधिकार और समुदायों का जानने का अधिकार स्वतंत्र मीडिया के लिए एक सुरक्षित वातावरण की तत्काल स्थापना पर निर्भर करता है।
लोकस्वर के अध्यक्ष राजीव गुप्ता के मुताबिक, “समय आ गया है कि हर स्तर पर हितधारकों – न केवल पत्रकार, बल्कि नागरिक समाज, कानूनी अधिवक्ता और राजनीतिक नेता – उन लोगों की रक्षा करने के लिए एकजुट हों जो लोकतंत्र की ताने-बाने में ऐसी महत्वपूर्ण लेकिन कमज़ोर भूमिकाएँ निभाते हैं।”
ऐसी दुनिया में जहाँ सच्चाई अक्सर धन और शक्ति से छिप जाती है, मुकेश चंद्राकर उस ईमानदारी के प्रतीक के रूप में खड़े हैं जिसे हम हर बार खो देते हैं जब एक पत्रकार को चुप करा दिया जाता है। उनके दुखद अंत को एक आवाज के रूप में लिया जाना चाहिए, जिससे खोजी पत्रकारिता के भविष्य की रक्षा के लिए एक सामूहिक प्रयास को बढ़ावा मिले और यह सुनिश्चित हो कि हमारे देश में जवाबदेही, न्याय और सच्चाई की मांग करते हुए स्वतंत्र आवाजें गूंजती रहें।


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