🎯 आओ परिवार नियोजन अभियान की सफलता का जश्न मनाएं — जनसंख्या संतुलन से भारत को मिली विकास की नई गति

📅 गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025 | दोपहर 02:37 बजे IST | आगरा, उत्तर प्रदेश

भारत ने जब 1952 में विश्व का पहला राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू किया, तब शायद किसी ने नहीं सोचा था कि यह पहल एक दिन सामाजिक सुधार का सबसे बड़ा स्तंभ बन जाएगी। आज, जब भारत की जनसंख्या 146 करोड़ पार कर चुकी है, यह कहना गलत नहीं होगा कि जनसंख्या नियंत्रण नहीं, जनसंख्या संतुलन ही भारत के विकास की कुंजी बना है।

आओ फैमिली प्लानिंग अभियान की सफलता का जश्न मनाएं
जन संख्या वृद्धि में संतुलन से विकास को गति मिली है

बृज खंडेलवाल


कल्पना कीजिए, यदि भारत ने परिवार नियोजन कार्यक्रम न अपनाया होता—तो आज आबादी 250 से 300 करोड़ के बीच होती। ऐसे में भूमि, जल और खाद्य संसाधनों पर भयानक दबाव पड़ता। पहले से ही सीमित कृषि क्षेत्र का विस्तार असंभव है, जबकि जल संसाधनों के 2030 तक 50% घटने का अनुमान है। ऐसी परिस्थिति में भूख, पलायन और अराजकता का साम्राज्य होता।


हमारे समाज में एक पुरानी प्रवृत्ति रही है—जब भी देश को किसी चुनौती का सामना करना पड़ा, दोष “जनसंख्या विस्फोट” पर मढ़ दिया गया। लेकिन अब वक्त है इस मानसिकता को बदलने का। बढ़ती जनसंख्या न तो शाप है, न बोझ, बल्कि एक समृद्धि का अवसर है—अगर इसे प्रशिक्षित, शिक्षित और जिम्मेदार बनाया जाए। भारत ने परिवार नियोजन के जरिये इसी दिशा में वह ऐतिहासिक कदम उठाया, जिसने आज हमें स्थिरता और संतुलन की राह पर ला खड़ा किया है।

बृज खंडेलवाल

आज भारत के पास 146 करोड़ से अधिक की जनसंख्या है—दुनिया में सबसे बड़ी। पर यह संख्या डराने की नहीं, संभालने की है। यह वही जनशक्ति है, जिसने भारत को डिजिटल मॉडल, आईटी सेवा, अंतरिक्ष मिशन और आर्थिक प्रगति के रास्ते पर अग्रणी बनाया है। आज़ादी के बाद योजनाओं की दिशा-भ्रमित शुरुआत के बावजूद, परिवार नियोजन कार्यक्रम भारत के लिए सामाजिक सुधार की सबसे बड़ी सफलता बनकर उभरा है।

साल 1952 में भारत ने विश्व का पहला परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू किया। यह उस समय की एक साहसिक और ऐतिहासिक पहल थी, जब अधिकांश देशों में इस विषय पर बात तक करना वर्जित माना जाता था। पांच वर्षीय योजनाओं में इस कार्यक्रम को शामिल कर सरकार ने जनता को यह संदेश दिया कि सशक्त परिवार ही सशक्त राष्ट्र की नींव है। प्रारंभिक वर्षों में इसका उद्देश्य जन-जागरूकता और स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार पर केंद्रित था।

1960 के दशक में “हम दो, हमारे दो” का नारा पूरे देश में गूंजा। इससे सामाजिक सोच बदली और लोगों में यह समझ बनी कि सीमित परिवार से ही जीवन की गुणवत्ता और अवसरों में सुधार संभव है। 1970 के दशक के जबरन नसबंदी अभियानों की गलतियों से भी भारत ने सबक सीखा। 1994 के काहिरा सम्मेलन के बाद नीति का स्वरूप बदला—अब “संख्या नियंत्रण” नहीं, बल्कि “स्वैच्छिक परिवार कल्याण” इसकी आत्मा बना। मातृ-स्वास्थ्य, शिक्षा और महिला अधिकारों को राष्ट्रीय नीति का मूल आधार बनाया गया।

आज राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत करोड़ों परिवारों को आधुनिक गर्भनिरोधक साधन—कंडोम, IUCD और इंजेक्टेबल्स—उपलब्ध कराए जा रहे हैं। आधुनिक डिजिटल टूल्स और मोबाइल हेल्थ ऐप्स जैसे mCEmr ने इन सेवाओं को सीधा घर-घर तक पहुंचाने का कार्य किया है।

परिवार नियोजन ने भारतीय समाज में गहरा बदलाव लाया है। जनसंख्या वृद्धि दर अब 0.89% रह गई है, जबकि 1970 के दशक में यह 2.3% थी। एक समय हर महिला औसतन 5.7 बच्चों को जन्म देती थी, जबकि 2025 में यह दर घटकर 1.9 रह गई है—जो “रिप्लेसमेंट लेवल” (2.1) से भी कम है।
इन आँकड़ों का असर हर स्तर पर दिखता है—

  • शिशु मृत्यु दर 1951 में 146 प्रति हजार थी, जो अब मात्र 27 रह गई है।
  • जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष से बढ़कर 71 वर्ष हो गई है।
  • महिला साक्षरता में पिछले दो दशकों में लगभग 25% की वृद्धि हुई है।
  • छोटे परिवारों के चलते nutrition, शिक्षा और आवास की स्थिति में व्यापक सुधार आया है।

इन सारी स्वास्थ्य सेवाओं के विकेंद्रीकरण के पीछे हमारी एक्सटेंशन सर्विसेज, आंगनवाड़ी और आशा की स्वयंसेवकों की कठिन और निरंतर परिश्रम की दास्तां है। उनके योगदान की प्रशंसा होनी चाहिए।

यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में कुल प्रजनन दर 1.6 है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 2.2—यानी शिक्षित और जागरूक समाज स्वाभाविक रूप से छोटा परिवार चुन रहा है।

अर्थशास्त्रियों के आकलन के अनुसार, घटती प्रजनन दर से भारत को 1991 से 2061 के बीच लगभग 7.4 ट्रिलियन डॉलर का आर्थिक लाभ होगा। इसका कारण यह है कि कम बच्चे होने से परिवारों में बचत बढ़ती है, महिलाओं की भागीदारी श्रम बाज़ार में बढ़ती है और निवेश की दिशा शिक्षा व स्वास्थ्य की ओर जाती है।

पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं, “भारत की 65% आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है, और औसत आयु मात्र 28 वर्ष। यही युवा वर्ग हमारे “डेमोग्राफिक डिविडेंड” का मूल है। परिवार नियोजन की सफलता ने भारत को एक ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है जहाँ यह युवा वर्ग सही शिक्षा और अवसर पाकर न केवल घरेलू अर्थव्यवस्था, बल्कि वैश्विक बाजार का भी इंजन बन सकता है।”

विदेशों में काम करने वाले भारतीयों ने 2022 में 111 अरब डॉलर की रेमिटेंस भारत भेजी—जो हमारे जीडीपी का लगभग 3% है। यह दर्शाता है कि संतुलित जनसंख्या, सशक्त परिवार और शिक्षा का क्या प्रभाव होता है।

भारत ने “नियंत्रण” की नीति से विकास की नीति की ओर कदम बढ़ा दिया है। अब लक्ष्य है कि हर नागरिक—खासकर महिलाओं—को परिवार नियोजन की जानकारी और साधन तक समान पहुंच मिले। अभी भी लगभग 9.4% महिलाओं को गर्भनिरोधक सेवाओं की आवश्यकता है, जिसे पूरा करना नीति की प्राथमिक जिम्मेदारी है, कहती हैं समाज सेविका विद्या जी।

सोशल एक्टिविस्ट पद्मिनी अय्यर के मुताबिक, “परिवार नियोजन अब केवल एक स्वास्थ्य कार्यक्रम नहीं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन बन चुका है—जो व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक हर स्तर पर परिवर्तन का कारक है। यह हमें उस रास्ते पर आगे बढ़ाता है जहां हर परिवार खुशहाल, हर बच्चा शिक्षित और हर नागरिक स्वस्थ हो। “

भारत ने यह साबित किया है कि कम बच्चे, खुशहाल परिवार केवल एक नारा नहीं, बल्कि समृद्धि का सूत्र है। परिवार नियोजन ने हमें सिखाया है कि टिकाऊ विकास केवल संसाधनों से नहीं, बल्कि सजग नागरिकता और संतुलित जनसंख्या से संभव है।

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